वैश्विकी : ट्रंप तो औंधे मुंह गिर पड़े
यरूशलम को इस्रइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के एकतरफा फैसले पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप विश्व समुदाय से अलग-थलग पड़ गए हैं.
वैश्विकी : ट्रंप तो औंधे मुंह गिर पड़े |
संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत समेत 128 देशों ने एक स्वर से अमेरिकी फैसले को खारिज कर दिया कि फिलिस्तीन-इस्रइल विवाद को बातचीत के जरिये ही सुलझाया जा सकता है. ताज्जुब की बात है कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे मित्र राष्ट्रों ने भी ट्रंप का साथ छोड़ दिया. हालांकि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं है. यह प्रतीकात्मक है. फिर भी इस प्रस्ताव ने ट्रंप की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को धक्का पहुंचाया है, जो अपनी ताकत के बलबूते सात दशक पुराने और अति उलझावपूर्ण विवाद को महज चुटकी में सुलझा कर एक बड़ी वैश्विक उपलब्धि हासिल करने का सपना देख रहे थे. इसको पाने के लिए उन्होंने धमकियां भी दीं कि अमेरिकी मान्यता को खारिज करने के लिए महासभा में लाये जा रहे प्रस्ताव का समर्थन करने वाले देशों की आर्थिक मदद रोक देंगे. उनकी धमकी बेअसर साबित हुई. अमेरिका पर निर्भर सात-आठ छोटे देशों ने ही ट्रंप का समर्थन किया.
वैश्विक समुदाय का यरूशलम पर रुख बहुत साफ है. वह इसे दो हिस्सों में बांट कर देखता है. पश्चिम यरूशलम इस्रइल के हिस्से और पूर्वी यरूशलम फिलिस्तीन को देने का पक्षधर है. लेकिन इस्रइल यरूशलम को एकीकृत के तौर पर देखता है और सम्पूर्ण हिस्से पर अपना अधिकार जताता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के इस प्रस्ताव के बाद इस्रइल पर शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा और इस बात की पूरी संभावना है कि उसे फिलिस्तीन को रियायत देनी पड़ेगी. दरअसल, इस्रइल-फिलिस्तीन के बीच द्विपक्षीय वार्ता से ही यरूशलम के भाग्य का निर्धारण मुमकिन हो सकता है.
भारत ने प्रस्ताव का समर्थन करके अपनी पारम्परिक नीति के प्रति दृढ़ता जाहिर की है जो बातचीत के जरिये इस विवाद के हल का पक्षधर है. हालांकि अमेरिका और इस्रइल के साथ बढ़ती नजदीकियों के कारण यह कयास लगाया जा रहा था कि नई दिल्ली-वाशिंगटन के समर्थन में अपना वोट देगा. अगले साल जनवरी में इस्रइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत आने वाले हैं. लेकिन भारत विश्व समुदाय के साथ खड़ा हो कर यह दर्शा दिया है कि फिलिस्तीन के प्रति भारत का रुख स्वतंत्र है और कोई अन्य देश इसे प्रभावित नहीं कर सकता. सैद्धांतिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी भारत के लिए यह आवश्यक था कि अमेरिका-इस्रइल के विरुद्ध और विश्व समुदाय के साथ दिखाई दे. इस्रइल के पक्ष में खड़ा होने से अरब देशों के साथ संबंध खराब होने का अंदेशा रहता, जो हमारी अस्सी फीसद तेल की आपूर्ति करते हैं. कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का शत्रुतापूर्ण रवैया को ध्यान में रखते हुए भी यह भारत के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं था. इस्रइल हमारे लिए अब अछूत नहीं है. 1992 से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध है. इन 25 सालों में दोनों के बीच रक्षा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा है. लेकिन ट्रंप के फैसले के साथ खड़े होने का मतलब फिलिस्तीन व उसकी आकांक्षाओं के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को कमजोर करना होता.
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