कुपोषण से निबटने की तैयारी

Last Updated 29 Nov 2017 05:19:50 AM IST

बीते शनिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश से कुपोषण खत्म करने के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक की है.


कुपोषण से निबटने की तैयारी.

बैठक का उद्देश्य 2022 तक इस समस्या का प्रभावी हल ढूंढ़ना था. इसमें प्रधानमंत्री कार्यलय के अलावा नीति आयोग तथा अन्य संबद्ध मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों को भी बुलाया गया था. बैठक में प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि साल 2022 तक इन प्रयासों के परिणाम धरातल पर स्पष्ट नजर आने चाहिए. 2022 में भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने जा रहे हैं. बैठक के बाद सरकार कुपोषण की समस्या दूर करने के लिए कौन से नए कार्यक्रम बनाती है, पुराने कार्यक्रमों में क्या सुधार किए जाएंगे, इनका खाका तो अभी स्पष्ट नहीं है. लेकिन यह समस्या प्रधानमंत्री की नजरों में है और वे इसके निदान के लिए अपनी प्रशासनिक मशीनरी को सक्रिय करना चाहते हैं, यह खुशी की बात है.

देश में कुपोषण की भयावहता का एहसास ‘द ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017’ के सामने आने से भी हुआ है, जो इसी महीने जारी हुआ है. इस रिपोर्ट में 140 देशों की खाद्य पोषण की स्थिति का अध्ययन किया गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में मां बनने योग्य 50 प्रतिशत महिलाएं स्वयं अल्प पोषित हैं और खून की कमी से ग्रस्त हैं.  बच्चों को कुपोषण की समस्या तब से प्रभावित करना शुरू करती है, जब वे मां के गर्भ में होते हैं. मां के कमजोर और एनिमिक होने के कारण गर्भस्थ शिशु को पर्याप्त खुराक नहीं मिल पाती. इससे उसके अंगों का विकास बाधित होता है और वह कमजोर, अल्पविकसित या कम वजन वाले शिशु के रूप में पैदा होता है. वह समय से पहले पैदा हो सकता है. ऐसे बच्चे बहुत जल्दी बीमारियों के शिकार बन जाते हैं या उनका मुकाबला नहीं कर पाते. यदि मां कमजोर हो तो वह प्रसव की तकलीफ नहीं झेल पाती. प्रसूती महिलाओं की मृत्यु दर बहुत ज्यादा है.

बच्चे के जन्म से छह महीने की अवधि तक कमजोर माताएं उसे पर्याप्त दूध नहीं पिला पातीं. इससे नवजात शिशु पर कुपोषण की दूसरी मार पड़ती है. इससे उसका सिर्फ शारीरिक ही नहीं, मानसिक विकास भी अवरुद्ध होने लगता है. उनकी आंखें कमजोर हो सकती हैं, सुनने की क्षमता कम हो सकती है. ऐसे बच्चे जीवित बच भी जाएं तो वे दिमाग से या देह से कमजोर होते हैं. बड़े होने पर उनकी कार्य या उत्पादनक्षमता सामान्य वयस्क की तुलना में कम होती है.

बच्चों पर कुपोषण का तीसरा बड़ा हमला तब शुरू होता है, जब उनसे मां का दूध छूटता है और वे ठोस आहार लेना शुरू करते हैं. गरीबी और भोजन की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होने के कारण उन्हें वे विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व नहीं मिल पाते, जिनकी उनके शरीर को जरूरत होती है. कई बार उन्हें भर पेट भोजन तो मिलता है, लेकिन भौगोलिक कारणों से उसमें विविधता नहीं होती. जैसे चावल उत्पादक क्षेत्र में लगातार चावल और आलू खाने वाले बच्चे में प्रोटीन और विटामिनों की कमी हो सकती है. छोटे बच्चे अपने आप नहीं खा पाते. उन्हें कई बार छोटी छोटी खुराक की जरूरत होती है. ऐसे खाते-पीते परिवारों में भी, जहां मां-बाप काम के लिए बाहर निकल जाते हैं तो बच्चों को कोई खिलाने वाला नहीं होता, बच्चे कुपोषण के शिकार बन जाते हैं.



संतुलित और पर्याप्त भोजन के अभाव में कुपोषण का शिकार कोई भी बन सकता है. सिर्फ चाकलेट और बिस्कुट खाने वाला बच्चा भी. पिजा बर्गर और कोक से भूख मिटाने वाला वयस्क भी और लगातार खिचड़ी या दलिया खा कर जीवित रहने वाला वृद्ध भी. मूल कारण है संतुलित आहार की कमी और पर्याप्त पोषक तत्वों का अभाव. इस तरह कुपोषण का एक कारण लापरवाही और जानकारी का अभाव भी है. लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि इसकी सबसे बुरी मार गरीबों पर पड़ती है, क्योंकि वे इस कमी की पूर्ति किसी भी और तरीके से नहीं कर पाते. गरीबों में भी औरतें और बच्चे इसका पहला शिकार बनते हैं. गर्भ धारण करने, प्रसव और शिशु के पालन के लिए स्त्रियों के शरीर को अतिरिक्त पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है. इसके अभाव में उनका शरीर स्वाभाविक रूप से अपना काम नहीं कर पाता और वे बीमार पड़ती है या जान का जोखिम मोल लेती है. इतनी ही खतरनाक स्थिति में वे बच्चे होते हैं, जिन्हें अपने विकास के लिए अतिरिक्त पोषण चाहिए होती है.

भारत में गांवों में पारंपरिक रूप से गरीबी रही है. आज का कुपोषण उसी गरीबी की अभिव्यक्ति है और अब इसने महामारी का रूप धारण करना शुरू कर दिया है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल कुपोषण से मरने वाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है. कुपोषण के मामले में दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति सबसे बुरी है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी यह चिंता का विषय बन गया है. यहां तक कि वि बैंक ने इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक उस महामारी से की है, जिसने 18 वीं शताब्दी में यूरोपीय आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को निगल लिया था. भारत में काम करने वाले कुछ स्वयंसेवी संगठन इसे ‘चिकित्सीय आपात स्थिति’ के रूप में देखने और इसे मिशन के रूप में लेने की बात कर रहे हैं.

आशा की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री की हालिया बैठक से इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों की गति तेज होगी. लेकिन हमें यह समझना होगा कि इसका सीधा संबंध गरीबी और घरेलू खाद्य असुरक्षा से है. इसे मिटाने के लिए घरेलू स्त्रियों का सशक्तीकरण करना होगा, उनके लिए चिकित्सीय सुविधाएं सरल बनानी होंगी, फसलों का पैटर्न बदलना होगा और नकदी फसलें उपजाने की परिपाटी रोकनी होगी. इसके लिए गरीबोन्मुख नीतियां बनानी होंगी और उन्हें कारगर ढंग से लागू कराना होगा. प्रधानमंत्री की बैठक में भी इस तथ्य को रेखांकित किया गया कि किस तरह मिशन इंद्रधनुष, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और मातृ वंदन जैसी सहायक योजनाओं का भी उनके पोषण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. हमें समझना होगा कि कुपोषण का निदान समेकित योजना से ही होगा, सिर्फ  पौष्टिक भोजन के वितरण से नहीं.

 

बाल मुकुंद सिन्हा


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