गुजरात : किस करवट बैठेगा ऊंट!

Last Updated 31 Oct 2017 03:09:48 AM IST

गुजरात चुनाव वैसे तो पिछले 15 वर्षों से देश की गहरी अभिरुचि का कारण रहा है. 2002 से जब भी गुजरात चुनाव का ऐलान हुआ, ऐसा लगा जैसे कोई युद्ध हो रहा हो.


गुजरात : किस करवट बैठेगा ऊंट!

इस बार भी लगभग वही स्थिति है. अंतर केवल इतना है कि तब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री के तौर पर विरोधियों के निशाने पर होते थे, और अब वे प्रधानमंत्री के रूप में हैं. हालांकि वहां भाजपा के अलावा केवल कांग्रेस का ही जनाधार रहा है, और अभी भी वही स्थिति है. इसलिए दूसरी पार्टयिों के लिए वहां करने को कुछ नहीं है.
गुजरात के बाहर ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश है, जिससे संदेश जाए कि भाजपा की हालत खराब है. विपक्ष के नाते इस रणनीति के अपने मायने हैं. लोक सभा चुनाव 2019 को ध्यान में रखकर विपक्ष भाजपा विरोधी एकजुटता पर काम कर रहा है. उसे लगता है कि मोदी को उनके घर में परास्त कर दिया जाए तो फिर माहौल बनाने में मदद मिलेगी कि जनता मोदी सरकार के कामों से असंतुष्ट है. विपक्ष के एकजुट होने की संभावना भी बलवती होगी. भाजपा का आत्मविश्वास भी डोलेगा. तो क्या ऐसा हो पाएगा? चुनाव पूर्व किसी की जीत-हार की भविष्यवाणी जोखिम भरी है. कोई निष्कर्ष निकालने के पहले कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए. 2013 से लेकर आज तक कांग्रेस का रिकॉर्ड एक दो अपवादों को छोड़ दें तो केवल चुनाव हारने का है. गुजरात में कुछ महीने पहले तक तो कांग्रेस में निराशा का यह हाल था कि उसके नेता ही पार्टी छोड़कर जा रहे थे. विधायक तक ने पार्टी से नाता तोड़ा.

अब अचानक ऐसा क्या हो गया जिससे कांग्रेस में नई जान आ गई है? कांग्रेस और उसके समर्थकों की सोच का पहला आधार विमुद्रीकरण एवं जीएसटी हैं. उन्हें लगता है कि व्यापारी-बहुल गुजरात में इन दोनों कदमों से व्यापारी मोदी सरकार से क्षुब्ध हैं. दूसरे, अल्पेश ठाकोर के कांग्रेस में शामिल होने तथा जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल के भाजपा-विरोधी स्वर को कुछ लोग बड़ी घटना मान रहे हैं. बेशक, पटेलों का एक वर्ग भी भाजपा के खिलाफ गया तो उसके लिए मुश्किल हो सकती है. ये दो ऐसे प्रमुख कारक हैं, जिनको भाजपा के लिए 2002 के बाद सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है. बेशक, विमुद्रीकरण और उसके नकारात्मक प्रभाव पूरी तरह खत्म हुए बिना जीएसटी लाया गया. जीएसटी भविष्य के लिए अच्छी नीति है, लेकिन तत्काल आम कारोबारियों को इससे कठिनाई हो रही है. किंतु इसके कारण वे मोदी के खिलाफ जाकर एकमुश्त कांग्रेस को वोट कर देंगे यह निष्कर्ष निकालना मामले का सरलीकरण हो जाएगा.
वोट देने के पीछे कई कारकों का हाथ होता है. दूसरे कारक में जातीय समीकरण महत्त्वपूर्ण है. तीन युवा नेताओं के कारण यह सामान्य निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस पिछड़े, दलितों एवं पटेलों का एक सामाजिक समीकरण अपने पक्ष में बना रही है. इसमें मुसलमान वोट जोड़ दें तो यह समीकरण भाजपा के लिए भारी पड़ जाएगा. प्रश्न तो यही है कि क्या ऐसा हो पाएगा? क्या ये जातियां एकमुश्त भाजपा के खिलाफ जाएंगी? इन तीन नेताओं का इतना प्रभाव हो जाए कि अपनी जाति या जाति समूहों का बहुमत वोट किसी को दिला सकें तो ऐसा हो सकता है. सामान्य स्थिति में ऐसा संभव नहीं. मुसलमानों को छोड़कर इन जाति समूहों का बहुमत भाजपा को वोट करता रहा है. एकदम भाजपा विरोधी लहर पैदा हो जाए तभी ऐसा हो ये जाति समूह भाजपा के खिलाफ जा सकते हैं.
भाजपा का गुजरात में संगठन अत्यंत मजबूत रहा है. वह कमजोर हो गया है, इसके कोई प्रमाण नहीं हैं. मोदी की गुजरात संगठन पर पकड़ कायम है. निजी लोकप्रियता भी लोगों के बीच है. विश्लेषण करते समय हम इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण कारक को नजरअंदाज नहीं कर सकते. यह भी न भूलिए कि भाजपा ने चुनाव की तैयारी भी कांग्रेस से पहले आरंभ कर दी थी. नोटबंदी और जीएसटी के कारण व्यापारियों में असंतोष का उसे पूरा आभास है. व्यापारी वर्ग पर भाजपा की पकड़ काफी मजबूत रही है. उससे जुड़े व्यापारियों के संगठन इस दिशा में काम कर रहे हैं.
अब जरा चुनावी अंकगणित पर आएं. भाजपा ने 2012 में राज्य की 182 में से 115 सीटें जीतीं. कांग्रेस को 61 सीटें मिली थीं. भाजपा को 47.83 प्रतिशत मत मिले और कांग्रेस को 38.93. तो दोनों के बीच 9 प्रतिशत मतों का अंतर था. यह अंतर तब था, जब पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात परिवर्तन पार्टी ने 163 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उस समय भी ऐसा ही माहौल बना था मानो केशुभाई के कारण कांग्रेस बढ़त की ओर है. उसकी सीटें बढ़ीं मगर वह काफी पीछे रही. आप देखेंगे कि भाजपा जब से सत्ता में आई है, कांग्रेस से उसके वोटों का अंतर लगभग 10 प्रतिशत रहा है. 2014 के लोक सभा चुनाव के आधार पर विचार करें तो भाजपा को 162 विधानसभा क्षेत्रों पर बढ़त मिली थी. लोक सभा चुनाव में भाजपा को करीब 60 प्रतिशत मत मिला था और कांग्रेस को केवल 33 प्रतिशत. ऐसा परिणाम तभी पलट सकता है, जब भाजपा की केंद्र और प्रदेश, दोनों सरकारों के खिलाफ व्यापक जनलहर हो. व्यापारी वर्ग के असंतोष या पटेलों के एक वर्ग की नाराजगी को आप भाजपा विरोधी व्यापक जन लहर नहीं कह सकते. दूसरे, हम कई बार मानकर चलते हैं कि अमुक जाति फलां नेता के साथ जाएगी. 2014 के चुनाव से इस प्रवृत्ति में बदलाव के साफ संकेत मिले हैं. बिहार के 2015 चुनाव को लोग जातीय समीकरणों के अनुसार मतदान का प्रमाण मानते हैं, और यह कुछ हद तक सही भी है.
इसके अलावा, आप जितने चुनाव देखेंगे उनमें जातीय समीकरण कमजोर हुए हैं. उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे बड़ा उदाहरण है. इसलिए ऐसे विश्लेषण को अब संशोधित करने की आवश्यकता है. भारत की राजनीति धीरे-धीरे नई दिशा ग्रहण कर रही है. धीरे-धीरे लोग मतदान में जाति से ऊपर उठकर विचार करने लगे हैं. इनका अनुपात चाहे जितना हो, ऐसा हो रहा है. गुजरात चुनाव में भी यह प्रवृत्ति दिखेगी. ऐसा नहीं हो सकता कि किसी जाति का युवा नेता कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने के लिए अपील करे और पूरी जाति ऐसा कर दे.

अवधेश कुमार


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