भारत : भ्रष्टाचार पर अंकुश कब?

Last Updated 01 Nov 2017 04:19:33 AM IST

भारतीय लोग होब्स विचारधारा वाले हैं (सिर्फ अनियंत्रित असभ्य स्वार्थ की संस्कृति वाले) भारत में भ्रष्टाचार का एक सांस्कृति पहलू है.


भारत : भ्रष्टाचार पर अंकुश कब?

भारतीय भ्रष्टाचार में बिल्कुल असहज नहीं होते, भ्रष्टाचार यहां बेहद व्यापक है. भारतीय भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध करने के बजाय उसे सहन करते हैं. कोई भी नस्ल इतनी जन्मजात भ्रष्ट नहीं होती यह जानने के लिए कि भारतीय इतने भ्रष्ट क्यों होते हैं, उनकी जीवन पद्धति और परम्पराएं देखिए. 

भारत में धर्म लेनदेन सरीखे व्यवसाय जैसा है. भारतीय लोग भगवान को भी पैसा देते हैं. इस उम्मीद में कि वो बदले में दूसरों की तुलना में उन्हें वरीयता देकर फल देंगे. ये तर्क इस बात को दिमाग में बिठाते हैं कि अयोग्य लोगों को इच्छित चीज पाने के लिए कुछ देना पड़ता है. मंदिर की चहारदीवारी के बाहर हम इसी लेनदेन को भ्रष्टाचार कहते हैं. धनी भारतीय कैश के बजाय स्वर्ण और अन्य आभूषण आदि देता है. वो अपने गिफ्ट गरीब को नहीं देता, भगवान को देता है. वो सोचता है कि किसी जरूरतमंद को देने से धन बरबाद होता है. जून, 2009 में ‘द हिन्दू’ ने कर्नाटक के मंत्री जी. जनार्दन रेड्डी द्वारा स्वर्ण और हीरों के 45 करोड़ मूल्य के आभूषण तिरुपति मंदिर में चढ़ाने की खबर छापी थी.

भारत के मंदिर इतना ज्यादा धन प्राप्त कर लेते हैं कि वो यह भी नहीं जानते कि इसका करें क्या? अरबों की सम्पत्ति मंदिरों में व्यर्थ पड़ी है. जब यूरोपियन इंडिया आए तो उन्होंने यहां स्कूल बनवाए. जब भारतीय यूरोप और अमेरिका जाते हैं, तो वो वहां मंदिर बनाते हैं. भारतीयों को लगता है कि अगर भगवान कुछ देने के लिए धन चाहते हैं, तो फिर वही काम करने में कुछ गलत नहीं है. इसीलिए भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्ट बन जाते हैं. भारतीय कल्चर इसीलिए इस तरह के व्यवहार को आसानी से आत्मसात कर लेती है, क्योंकि नैतिक तौर पर इसमें कोई नैतिक दाग नहीं आता. एक अति भ्रष्ट नेता जयललिता दोबारा सत्ता में आ जाती हैं, जो आप पश्चिमी देशों में सोच भी नहीं सकते. भारतीयों की भ्रष्टाचार के प्रति संशयात्मक स्थिति इतिहास में स्पष्ट है. भारतीय इतिहास बताता है कि कई शहर और राजधानियों को रक्षकों को गेट खोलने के लिए और कमांडरों को सरेंडर करने के लिए घूस देकर जीता गया. यह सिर्फ  भारत में है.

भारतीयों के भ्रष्ट चरित्र का परिणाम है कि भारतीय उपमहाद्वीप में बेहद सीमित युद्ध हु़ए. यह चकित करने वाला है कि भारतीयों ने प्राचीन यूनान और मॉडर्न यूरोप की तुलना में कितने कम युद्ध लड़े. नादिरशाह का तुकरे से युद्ध तो बेहद तीव्र और अंतिम सांस तक लड़ा गया था. भारत में तो युद्ध की जरूरत ही नहीं थी, घूस देना ही सेना को रास्ते से हटाने के लिए काफी था. कोई भी आक्रमणकारी, जो पैसे खर्च करना चाहे भारतीय राजा को चाहे उसकी सेना में लाखों सैनिक हों, हटा सकता था. प्लासी के युद्ध में भी भारतीय सैनिकों ने मुश्किल से कोई मुकाबला किया. क्लाइव ने मीर जाफर को पैसे दिए और पूरी बंगाल सेना 3000 में सिमट गई. भारतीय किलों को जीतने में हमेशा पैसों के लेन देन का प्रयोग हुआ. गोलकुंडा का किला 1687 में पीछे का गुप्त द्वार खुलवा कर जीता गया. मुगलों ने मराठों और राजपूतों को मूलत: रित से जीता. श्रीनगर के राजा ने दारा के पुत्र सुलेमान को औरंगजेब को पैसे के बदले सौंप दिया.

ऐसे कई मामले हैं जहां भारतीयों  ने सिर्फ  रित के लिए बड़े पैमाने पर गद्दारी की. सवाल है कि भारतीयों में सौदेबाजी का ऐसा कल्चर क्यों है जबकि जहां तमाम सभ्य देशो में सौदेबाजी का यह कल्चर नहीं है. भारतीय इस सिद्धांत में विश्वास नहीं करते कि यदि वो सब नैतिक रूप से व्यवहार करेंगे तो सभी तरक्की करेंगे क्योंकि उनका ‘विश्वास/धर्म’ यह शिक्षा नहीं देता. उनका कास्ट सिस्टम उन्हें बांटता है. वो यह हरगिज नहीं मानते कि हर इंसान समान है. इसकी वजह से वो आपस में बंटे और दूसरे धर्मो में भी गए. कई हिन्दुओं ने अपना अलग धर्म चलाया. जैसे सिख, जैन, बुद्ध और कई लोगों ने ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाए. परिणामत: भारतीय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते. भारत में कोई भारतीय नहीं है, वो हिन्दू, ईसाई,  मुस्लिम आदि हैं. भारतीय भूल चुके हैं कि 1400 साल पहले वो एक ही धर्म के थे. इस बंटवारे ने एक बीमार कल्चर को जन्म दिया. यह असमानता एक भ्रष्ट समाज में  परिणित हुई, जिसमें हर भारतीय दूसरे भारतीय के विरु द्ध है, सिवाय भगवान के जो उनके विश्वास में खुद रिश्वतखोर है.
(लेखक न्यूजीलैंड वासी हैं)

ब्रायन गाडजोन


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