मीडिया : जेम्सबांड के बाप

Last Updated 29 Oct 2017 12:30:48 AM IST

एक पुलिस वाला दिल्ली की एक अदालत से निकल कर बाहर आ रहा है. एक अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर उसके पीछे पड़ जाती है कि अमुक केस में क्या हुआ? बताइए.


मीडिया : जेम्सबांड के बाप

पुलिसमैन ने कहा, आप भी तो अदालत में थीं मैडम. इतना कह बच निकलना चाहता है. लेकिन रिपोर्टर उसके पीछे पड़ी रहती है कि बताइए, बताइए. बहरहाल, पुलिस वाला कुछ नहीं बोलता. कारण! केस ‘सबजूडिस’ है. क्या बोले? कैसे बोले? लेकिन रिपोर्टर पीछे ही पड़ी रहती है.
एक चैनल और उसके रिपोर्टर आये दिन ऐसे सीन बनाते रहते हैं. मानो सत्य की खोज में निकले कोलंबस हों और जिससे पूछे रहे हों वह कुछ छिपा रहा हो. पहले वे पीछा करते हैं. व्यक्ति के मुंह में अपना ‘गन माइक’ ठूंसने की कोशिश करते हैं. बंदा पैदल जा रहा है, तो उसकी शामत आ जाती है. रिपोर्टर गन माइक उसके मुंह में ठूंस कर कुछ न कुछ उगलवाना चाहते हैं. वह बंदा कुछ नहीं बोलता और आगे बढ़ जाता है तो कहा जाने लगता है कि देखा, वह हम से बचता फिर रहा है अर्थात दाल में कुछ काला है वरना वह अपना मुंह क्यों छिपाता, बचता क्यों?
कई बार ऐसा भी देखा गया है : लक्षित व्यक्ति कार में बैठा है. कार रुक-रुक कर चल रही कि रिपोर्टर गन माइक लेकर दौड़ती/दौड़ता है. शीशे के बाहर से ही पूछने लगता है कि आपको क्या कहना है? कार में बैठा आदमी आगे बढ़ जाता है, तो कहा जाने लगता है कि देखा, वह बचके निकल गया. अहंकारी कहीं का! वह हमारे दो टूक सवालों का जवाब न देकर बचे जा रहा है यानी कि दाल में कुछ काला है.

इसके बाद उसका एंकर दिन भर ऐसे फुटेज दिखा-दिखा कर कहता रहता है कि हमारे रिपोर्टर के सीधे सवालों से बचने की कोशिश कर रहा है. सवालों के जवाब नहीं देना चाहता. वह क्यों बच रहा है? क्या छिपाना चाहता है? यानी कि दाल में जरूर कुछ काला है. फिर वीर भाव से भरकर बोलता है : लेकिन हम पीछा नहीं छोड़ने वाले. सच को उजागर करके रहेंगे!
देश का कानून कहता है कि किसी भी व्यक्ति को ‘चुप’ रहने, ‘न बोलने’ यानी ‘खामोश’ रहने का अधिकार है. अनेक लोग मीडिया से बचना चाहते होते हैं. कारण मीडिया ही है. पक्षपातपूर्ण खबर बनाने वाले मीडिया ने अपने आप को संदिग्ध बना लिया है. अनेक लोग मानते हैं कि मीडिया का एक खास हिस्सा एकतरफा मुकदमा चलाने का आदी है. अपना एजेंडा चलाता है. इसकी वजह से अतीत में कई लोगों ने आत्महत्या तक की हैं. वह ‘न बोलने वाले’ को ‘संदिग्ध’ बनाने का धंधा करता है.
ऐसे ही कुछ केसों में जब किसी दबंग बंदे से ऐसे चैनल का पाला पड़ता है, तो वह सारी वीरता छोड़ कायर की तरह पीछे हट जाता है. एक केस में जब  एक घमंडी एंकर ने एक ताकतवर आदमी के खिलाफ एकतरफा ‘अभियान’ चलाया तो उसने एक बड़ी राशि का दावा करते हुए मानहानि का मुकदमा कर दिया. इसके बाद अपने को महाबली समझने वाला एंकर की तीखी जुबान को लकवा मार गया.
जाहिर है : अपना मीडिया सिलेक्टिव तो है ही कायर भी है. एक ओर वह अपने आप को जेम्स बांड का बाप समझता है, तो दूसरी ओर जब किसी बड़े से पाला पड़ता है, तो दुम हिलाने लगता है.
जबर्दस्ती पीछे पड़ने वाली/पीछा करने वाली  पत्रकारिता किसी की ‘चुप्पी के अधिकार’ का सम्मान नहीं करती. पीछे पड़कर ऐसी स्थिति बनाती है कि लगे कि जो चुप लगा रहा है, मीडिया से बचता फिर रहा है, और इस तरह वही दोषी है क्योंकि दोषी नहीं है तो उसे किसी का क्या डर? ऐसी पत्रकारिता लक्षित व्यक्ति से कुछ न कुछ बुलवाना चाहती है ताकि उसे बाइट मिले जिसे वह दिन भर ब्रेकिंग न्यूज की तरह बजा सके. अच्छी टीआरपी बटोर सके और जिसके एवज में उसे विज्ञापनों का अच्छा रेट मिल सके.
इस प्रकार की पत्रकारिता न किसी तरह की ‘खोजी’ पत्रकारिता है, न मेहनत करने वाली कि मेहनत से, रिसर्च से सचाई का पता लगाए और तब बताए. वह अपने लक्षित व्यक्ति पर ही पलती है. उसे पहले तिकतिकाती है, फिर उत्तेजित करती है, फिर गुस्सा दिलाती है, और कोई गुस्सा करता है तो कहने लगती है कि चोर की दाढ़ी में तिनका और देखो, देखो ये आदमी तो ‘मैसेंजर’ यानी ‘संदेशवाहक’ को ही शूट किए दे रहा है. प्रेस की आजादी की कद्र नहीं करता.
जब मीडिया अपने को एकतरफा धंधेबाज बना लेता है तो उसकी कोई कद्र क्यों करे? ब्लैकमेल करने और पत्रकारिता में अंतर न रहे तो कोई उसका सम्मान क्यों करे? हमारा मानना है कि अपनी साख कायम करने के लिए मीडिया को इस तरह की पत्रकारिता से हर हाल में बचना चाहिए.

सुधीश पचौरी


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