नजरिया : अब बदल तो रहे हैं राहुल

Last Updated 15 Oct 2017 12:59:34 AM IST

चुनौतियों की डगर पर चल रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का मुश्किलों ने कभी पीछा नहीं छोड़ा.


अब बदल तो रहे हैं राहुल

राजनीति में उनके सक्रिय रहते हुए कांग्रेस ने केन्द्र में सरकारें तो बनाई, लेकिन उनका राहु काल खत्म नहीं हुआ. उन्हें राजनीति में ‘थोड़ा और समय देने’, ‘अनुभव लेने’ और ‘पकने तक इंतजार करने’ जैसी नसीहतों के साथ सरकार और पार्टी का नेतृत्व करने से दूर रखा गया. इस दौरान घोटालों की सरकार के रूप में अपयश ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी. कांग्रेस और यूपीए में निर्णायक रहे बिना राहुल अपनी धुर विरोधी बीजेपी के हमलों के केन्द्र में रहे. एक ऐसे वक्त में जब वह पार्टी को विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रखने की कोशिशों में जुटे हैं, उन्हें परिवारवाद की उपज बताकर मणिशंकर अय्यर ने राहुल के लिए राहु काल की चरम स्थिति पैदा कर दी है.

मणिशंकर को पीएमओ में नियुक्ति राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में मिली थी. तभी वह गांधी परिवार के करीब आए. ये गांधी परिवार का आशीर्वाद ही था कि वह नौकरी छोड़कर राजनीतिक सफर पर आगे बढ़ते गए. एक ऐसा समय भी था, जब उनकी गिनती गांधी परिवार के खास दरबारियों में होती थी. शायद इसलिए सोनिया और राहुल के खिलाफ उनकी तीखी भाषा ने सभी को चौंका दिया है- ‘कांग्रेस अध्यक्ष या तो मां बनेगी या फिर बेटा. जब कोई प्रत्याशी है ही नहीं तो अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कैसे होंगे’.

राहुल को राजीव गांधी जैसा नसीब नहीं मिला कि पार्टी महासचिव पद पर नया होते हुए भी मां इंदिरा की शहादत के बाद उन्हें सीधे प्रधानमंत्री पद सौंप दिया गया. लेकिन राजीव गांधी का प्रिय बनकर कांग्रेस के सहारे राजनीतिक सफर शुरू करने वाले मणिशंकर अय्यर ने राहुल के साथ ज्यादती कर दी. सोनिया के साथ तो और भी ज्यादा जो लम्बे समय तक पार्टी को दूर से निहारती रहीं, निखारती रहीं. फिर एक समय पार्टी की कमान संभाली. सरकार की कमान संभालने का मौका भी मिला, लेकिन विदेशी मूल के मुद्दे से खुद मणिशंकर भी तब सोनिया को नहीं बचा सके थे. कहते हैं सोनिया ने प्रधानमंत्री पद की ‘कुर्बानी’ दे दी.

राहुल-सोनिया की वेदना यही है कि आज मणिशंकर जैसे नेता को काबू में करने वाला पार्टी में कोई कद्दावर नेता नहीं है. पंजाब, कर्नाटक और हिमाचल के अलावा कोई प्रमुख राज्य हाथ में नहीं है. दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित, जनार्दन द्विवेदी, अभिषेक मनु सिंघवी, मीरा कुमार, अजीत जोगी, हरीश रावत जैसे नेताओं का पार्टी में प्रभाव कम हुआ है. मनीष तिवारी, रणदीप सिंह सुरजेवाला, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं में इतना दम नहीं है कि वे मणिशंकर जैसे नेताओं को कंट्रोल में कर सकें. हालांकि अशोक गहलोत, कमलनाथ, गुलाम नबी आजाद में दोनों पीढ़ियों के बीच सेतु का काम करने का माद्दा अब भी दिखता है, तो अहमद पटेल अब भी पार्टी के अहम रणनीतिकार बने हुए हैं.

राहुल को कभी आलाकमान की ताकत का इस्तेमाल करने का अवसर नहीं मिला. न वे कभी पार्टी अध्यक्ष रहे न सरकार में कोई मंत्री. लेकिन इसके लिए कोई और नहीं वे खुद जिम्मेदार हैं. राहुल आज जिस तरह सामने से आकर पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं, वैसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया. अगर किया होता तो सवाल ही नहीं है कि यूपीए-2 में उन्हें सरकार नेतृत्व का मौका नहीं मिलता. 2014 के आम चुनाव में भी उन्होंने खुद को पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं किया. ऐसे में उन्हें मनमोहन सिंह की साख पर दांव खेलता हुआ राजनीतिज्ञ माना गया. सच यह है कि माना ये गया कि मोदी के सामने राहुल को खारिज कर दिया गया है. पार्टी या सरकार का नेतृत्व नहीं करने का खमियाजा राहुल को इस रूप में भुगतना पड़ा है कि यूपीए के घटक दलों ने कभी उन्हें खुलकर अपना नेता नहीं माना. अगर राहुल ये परीक्षा पास कर चुके होते तो आज इतनी दिक्कत नहीं होती. आज भी ये सवाल बना हुआ कि यूपीए के घटक दल उनके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे या नहीं. राहुल ने लालू प्रसाद से भी एक दूरी बना ली थी, जो कांग्रेस के एकतरफा समर्थक और बीजेपी के धुर विरोधी रहे हैं.

राहुल ने कांग्रेस महासचिव और बाद में पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में जो टीम अपने साथ बनाई वह भी वंशवाद से पैदा हुई टीम थी और अपनी चमक लगातार खो रही थी. सच ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़ दें तो जितिन प्रसाद, सचिन पायलट जैसे युवा नेता भी अपने-अपने राज्यों में खुद को प्रभावी नेता साबित नहीं कर पाए. इन नेताओं से ज्यादा यह राहुल गांधी की असफलता है क्योंकि युवा मामलों का प्रभार रखते हुए भी युवाओं को पार्टी से जोड़ने में नाकाम रहे. इसकी वजह शायद युवाओं के बीच गया यही संदेश था कि राहुल की टीम में योग्यता से ज्यादा पृष्ठभूमि को तरजीह मिलेगी.

तमाम आलोचनाओं के बावजूद एक सच्चाई यह भी है कि बीजेपी को अगर किसी नेता से डर लगता है तो वह राहुल गांधी हैं. राहुल अगर गुजरात की जंग साधने की तैयारी करते हैं, पीएम मोदी पर निशाना साधने के लिए प्रत्यंचा चढ़ाते हैं तो तुरंत उनके खिलाफ अमेठी में मोर्चा खुल जाता है. क्या कारण है कि राहुल अगर गुजरात से पूरे देश में संदेश देना चाहते हैं तो बीजेपी अमेठी से राहुल के खिलाफ संदेश देकर इसकी भरपाई करना चाहती है. ऐसा कर बीजेपी मोदी का बचाव भी करती है और राहुल पर हमले को और धारदार बनाती है. गुजरात में दिये राहुल गांधी के तथ्यपरक भाषण की सराहना हो रही है. आम जनता के साथ विश्लेषक भी उनमें झलकी परिपक्वता की सराहना कर रहे हैं. यूटूब पर उनके भाषणों की लाइकिंग बेतहाशा बढ़ रही है. इसके पहले राहुल अपने भाषणों में ऐसी कोई चूक अवश्य कर जाते थे कि हंसी के पात्र हो जाते थे. लेकिन गुजरात में राहुल काफी सयाने दिखे हैं.

आज भी विदेश में पीएम मोदी के खिलाफ लोग अगर किसी को सुनते हैं तो वह राहुल गांधी ही हैं. यही कारण है कि राहुल के दो हफ्ते के अमेरिका दौरे से सबसे ज्यादा पीड़ा बीजेपी को हो रही थी. राहुल अमेरिका में अकेले मोर्चा थामे हुए थे और उनके खिलाफ भारत में बीजेपी की पूरी टीम. बीजेपी ने चाहे सोशल मीडिया के जरिए राहुल पर निशाना साधने में भले कोई कसर नहीं छोड़ी हो, लेकिन अगर वाकई राहुल इतने कमजोर होते तो बीजेपी को अमेठी में राहुल के खिलाफ डेरा डालने की जरूरत ही क्यों पड़ती?

यानी राहुल और कांग्रेस के लिए उम्मीद खत्म नहीं हुई है. पार्टी जिंदा रहेगी तब तो पार्टी में लोकतंत्र की बात हो सकेगी. इस बात को मणिशंकर जैसे नेता नहीं समझ सकते जिन्हें जमीनी सियासत का कोई अनुभव नहीं रहा है. कांग्रेस में आलाकमान संस्कृति रही है. यह तभी मजबूत होगी जब पार्टी के पास दोबारा ताकत आए. उसके बाद आप चाहें तो पार्टी में संस्कृति बदलने की कोशिश कर सकते हैं मगर संकट में आलाकमान को ठेंगा दिखाना मौकापरस्ती है. राजनीति में 2019 और उससे पहले होने वाला गुजरात चुनाव राहुल के लिए अग्निपरीक्षा है. गुजरात चुनाव कांग्रेस जीते या नहीं, मगर कांटे की टक्कर देने में भी अगर वह कामयाब रही, तो पार्टी अपने लिए सोच सकती है. यह उम्मीद अभी बाकी है.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर-इन-चीफ


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