अर्थव्यवस्था : कैमरा नहीं एक्शन
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं हालिया बैठक में. इस बैठक को बहुत प्रचारित किया गया.
अर्थव्यवस्था : कैमरा नहीं एक्शन |
इस प्रचार के बिना भी परिषद अपना काम कर सकती थी. पर अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है, उसे देखकर यह साफ होता है कि सरकार, प्रधानमंत्री यह साफ संदेश देना चाहते हैं कि सरकार स्थिति को बहुत गंभीरता से ले रही है. लेना बनता भी है. जिस गुजरात मॉडल की बात करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव में फतह हासिल की थी, वह मॉडल तेज आर्थिक विकास पर आधारित था और कटु सचाई यह है कि विकास की दर हाल के समय में गिरावट की ओर रही है.
ज्यादा पुराने आंकड़ें ना भी लें-सिर्फ पांच तिमाहियों के-यानी सवा साल के लें, तो अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार गिरावट का रु ख दिखा रही है. और ये आंकड़े सरकार द्वारा दिए गए आंकड़े हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के गिरावट वाली आशंका के आंकड़ों पर आर्थिक सलाहकार परिषद के एक अर्थशास्त्री ने कहा कि अस्सी फीसद मौकों पर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आंकड़े गलत साबित हो जाते हैं. 2016-17 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून 2016 में सकल घरेलू विकास की दर थी-7.9 प्रतिशत यानी करीब आठ प्रतिशत. अगली तिमाही यानी जुलाई-सितम्बर, 2016 में यह गिरकर 7.5 प्रतिशत पर आई, तब भी यह आिस्त थी कि सात प्रतिशत से ऊपर है.
अगली तिमाही यानी अक्तूबर-दिसम्बर, 2016 में यह और गिरी और गिरकर सात प्रतिशत पर आई. इससे अगली तिमाही यानी जनवरी-मार्च 2017 में यह दर गिरकर 6.1 प्रतिशत पर आई. और अप्रैल-जून, 2017 की तिमाही में विकास दर गिरकर 5.7 प्रतिशत रह गई. पांच तिमाहियों में करीब आठ प्रतिशत से गिरकर 5.7 प्रतिशत तक आना चिंता की बात है. और इसे सुस्ती कहा जाए या मंदी कहा जाए, यह बहस बेमानी है.
मूल मसला यह है कि अर्थव्यवस्था के विकास की दर बढ़ने के बजाय घट रही है. यह गहरी चिंता का विषय है. ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था डूब रही है. अर्थव्यवस्था के बहुत से संकेत काफी सकारात्मक हैं. 2013-14 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत के बराबर था, यह 2016-17 में गिरकर 3.5 प्रतिशत हो गया और 2017-8 यानी मार्च 2018 में इसके गिरकर 3.2 प्रतिशत होने के आसार हैं. यानी राजकोषीय घाटे के मोच्रे पर सरकार अनुशासित रही है.
आर्थिक सलाहकार परिषद के संवाद का आशय यह है कि सरकार को राजकोषीय घाटा के मामले में अनुशासन का पालन करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने के नाम पर खजाने के दरवाजे खुले छोड़ देने चाहिए यानी खुलकर खर्च करना चाहिए. आर्थिक सलाहकार परिषद ने अर्थव्यवस्था के दस क्षेत्र ऐसे चिह्नित किए हैं, जिनमें गंभीरता और तेजी से काम होना जरूरी है. आर्थिक विकास, रोजगार-नौकरी सृजन, गैर-औपचारिक क्षेत्र और समग्रीकरण, मौद्रिक नीति, राजकोषीय ढांचा, सार्वजनिक खर्च, संस्थान और आर्थिक प्रशासन, खेती, उपभोग और उत्पादन के पैटर्न, सामाजिक क्षेत्र. ये वे क्षेत्र हैं, जो कमोबेश बहुत पहले से ही चिंता-चिंतन के विषय हैं. इसलिए इन क्षेत्रों को चिह्नित किया जाना बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है. उपलब्धि दिखाई देनी चाहिए एक्शन में. इन क्षेत्रों में एक्शन ही दरअसल समूची अर्थव्यवस्था का एक्शन है.
बुनियादी मसला अभी अर्थव्यवस्था का यह है कि विकास नहीं हो रहा है, रोजगार नहीं बढ़ रहा है, निजी क्षेत्र निवेश नहीं कर रहा है. विकास न होने की एक बड़ी वजह तो ग्लोबल है. निर्यात ठंडे रहने की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती दिखाई पड़ रही है और घरेलू कारोबारी निवेश इसलिए नहीं बढ़ा रहे हैं कि पहले की बढ़ी हुई क्षमताओं से ही अभी की मांग को पूरा किया जाना संभव हो पा रहा है. जब नई क्षमताओं की जरूरत नहीं है, तो फिर नया निवेश करने की जरूरत क्या है? इसलिए निजी निवेश दिखाई नहीं पड़ रहा है. जहां नई मांग पैदा हो रही है वहां निवेश दिखाई पड़ रहा है-जैसे ऑटोमोबाइल उद्योग. पर आटो उद्योग इस तरह से तकनीकी कुशलता वाला उद्योग है कि इसमें उत्पादन बढ़ाने के लिए नये रोजगार पैदा कर पाना आसान नहीं है. अधिकांश कंपनियां कम-से-कम लेबर लेकर अधिक-से-अधिक उत्पादन करना चाहती हैं. अर्थशास्त्री की भाषा में इसे कुशलता बोलते हैं.
इस कुशलता को सरकार खत्म नहीं कर सकती. रोजगार का और खासकर अकुशल रोजगार का एक क्षेत्र कंस्ट्रक्शन हुआ करता था. वहां मंदी छाई हुई है. जब तक चोर-ठग किस्म के कुछ बिल्डरों पर ठोस कार्रवाई नहीं होगी, इस क्षेत्र में नये खरीदारों का विश्वास आ पाना मुश्किल है. सरकार को ठोस इच्छाशक्ति दिखाते हुए कुछ बड़े बिल्डरों पर कार्रवाई करते हुए ग्राहकों को फ्लैट या उनका रिफंड सुनिश्चित करना चाहिए, तब जाकर कंस्ट्रक्शन में नई मांग आएगी. खेती पर निर्भर लोगों की संख्या कम करनी है, तो कंस्ट्रक्शन क्षेत्र का विकास जरूरी है. खेती से मुक्त हुए बहुत लोगों को रोजगार देने में कंस्ट्रक्शन क्षेत्र सक्षम है. पर कंस्ट्रशन क्षेत्र की बेहतरी के सारे कदम आर्थिक सलाहकार परिषद की क्षमताओं से बाहर के हैं, इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को गंभीर प्रयास करने होंगे. खेती के विकास पर बहुत जबानी जमाखर्च हुआ है.
जमीनी हकीकत यह है कि एक साल प्याज महंगा हो जाता है, दूसरे साल टमाटर महंगा हो जाता है. कमाई बिचौलियों की होती है, नुकसान जब होना होता है, तो किसान का होता है. यानी इस अर्थव्यवस्था में किसान शिकार है, उसके शिकारी बनने की नौबत जब आती है, तो सरकार उनके खिलाफ कदम उठाती है. आर्थिक सलाहकार परिषद यह सुनिश्चित करे कि छोटे किसान को भी उसकी उपज का भाव ठीक-ठाक मिले.
राष्ट्रीय ऑनलाइन मंडी का जो प्रयास था, वह भी अभी तक प्रयास ही है, परिणाम नहीं दे पाया. परिषद यह सुनिश्चित करे कि किसानों को उनकी उपज के लाभदायक भाव मिलने के लिए ऐसी संस्थागत व्यवस्था बने कि उन्हें परेशान ना होना पड़े. ऐसा अमूल जैसा संस्थान बनाकर होगा या छोटी-छोटी कंपनियां बनाकर होगा, इस सवाल को परिषद जल्दी-से-जल्दी हल करे. परिषद अगर खेती के क्षेत्र में ही कुछ ठोस कर पाने में समर्थ हुई तो इस सलाहकार परिषद को सार्थक मान लिया जाएगा.
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