प्रसंगवश : अस्थिर होते कामकाज की चुनौती

Last Updated 08 Oct 2017 05:54:58 AM IST

जीवन चलने-चलाने के लिए आर्थिक संसाधन जरूरी होते हैं, और श्रम के सहारे इन संसाधनों को अर्जित करना सभ्य समाज की स्वीकृत परिपाटी बन चुकी है.


प्रसंगवश : अस्थिर होते कामकाज की चुनौती

अत: जीवन के विकास की गति और दिशा आम तौर पर व्यक्ति के व्यवसाय पर निर्भर करती है. कभी यह सब जातिगत और वंशानुगत हुआ करता था, पर आज ‘स्टार्टअप’ के दौर में व्यक्ति का व्यावसायिक विकास ज्ञान, कौशल और उद्यमिता के मेल पर टिका हुआ है. वैीकरण और निजीकरण के इस दौर में कार्य की प्रकृति और उसके कायदे-कानून बदल रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अस्तित्व में आने के साथ व्यापार का आकार-प्रकार भी बदल रहा है. सूचना और संचार के बलबूते टिके आधुनिक आफिस का ताम-झाम और कर्मिंयों का सारा काम निजी कंप्यूटर या लैपटॉप में सिमटता जा रहा है. कई कार्यालयों तो ऐसे देखने को मिल जाते हैं, जहांअब भौतिक/शारीरिक उपस्थिति अनिवार्य नहीं रही. लोग अब घर से काम कर सकते हैं.

धीरे-धीरे ऊपर से नीचे के क्रम में व्यवस्थित पदानुक्रम या ‘हायरारकी’ की जगह बहुलता की ‘हेट्रारकी’ वाली संरचना ले रही है. साथ ही, अलग-अलग दूरदराज की जगहों पर रह कर भी लोग सक्रिय रूप से जुड़ कर काम सकते हैं. नये जमाने की ‘वर्चुअल टीम’ कुछ इसी तरह से काम करती है. जरूरत पड़ने पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए सलाह-मशविरा और बैठक का चलन बढ़ रहा है. काम की निगरानी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से की जा रही है.

कुल मिला कर यह कह सकते हैं कि देश और काल की सीमाएं टूट रही हैं, और प्रौद्योगिकी के साये में पनप रही कामकाजी दुनिया एक संजाल (नेटवर्क) में कार्य कर रही है. पहले व्यापार और कार्य की दुनिया प्राय: उत्पादन से जुड़ी होती थी पर अब दृश्य बदल रहा है. अब पांच में से तीन काम या नौकरी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) में  आते हैं,  न कि उत्पादन के. ज्यादातर कार्य ऐसे होते जा रहे हैं, जिनमें एक व्यक्ति के बदले कई लोगों की टीम की भूमिका केंद्रीय होती जा रही है.

सबसे बड़ा बदलाव इस अर्थ में आ रहा है कि अब दीर्घकालिक स्थिरता के सुकून की जगह अस्थिरता और बेचैनी लेती जा रही है. बढ़ती मशीनों के चलते संगठनों का आकार छोटा होता जा रहा है, और ‘पेपरलेस’ कार्यस्थल में कर्मचारियों की भूमिका बदल रही है. व्यापारिक संस्थानों का विलय (मर्जर) और अवाप्ति (एक्विज़िशन) की बढ़ती घटनाओं ने  व्यापार-वाणिज्य के माहौल को बदल डाला है. पूर्णकालिक (स्थायी) कर्मिंयों की जगह अंशकालिक और निविदा पर नियुक्ति बढ़ रही है.

किसी भी संगठन के कर्मिंयों के समुदाय को देखें तो उनमें आयु, लिंग, आरक्षण, विकलांगता आदि के आधार पर विविधता बढ़ रही है. विविधता होने का अभिप्राय है कि कार्यस्थल पर भिन्न रु चियों, मनोवृत्तियों और संस्कृतियों को स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर अंगीकार करना. अब कार्य की प्रकृति भी तरल किस्म की हो रही है, जो अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है. साथ ही, कार्य के दायित्व के लिए चुने गए समूह के आकार-प्रकार में बदलाव आ रहा है, जिसमें भिन्न भिन्न देशों के सहकर्मिंयों के साथ  कार्य करना आवश्यक होता जा रहा है. विकसित देशों में युवा वर्ग की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है. आज ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और स्वीडन में पंद्रह से चौबीस वर्ष के बीच की उम्र के सत्तर प्रतिशत किशोर और युवा किसी न किसी रूप में काम कर रहे हैं. वहां बारहवीं तक पढ़ने जाने वाले ज्यादातर बच्चे बीस घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं. ये कर्मी अपने कार्य-स्थल में रमे रहते हैं, इसलिए उससे ज्यादा ही प्रभावित होते हैं. उनके लिए काम वर्तमान में उपलब्ध कौशलों के उपयोग का मौका देता है.

कामकाज की दुनिया में प्रवेश ले रहे नए कर्मी अधिक सुपठित और प्रशिक्षित होते हैं क्योंकि उनकी शिक्षा माता-पिता की तुलना में अधिक हुई रहती है. वे तकनीकी दृष्टि से अधिक ज्ञान भी रखते हैं, स्थानीय के बदले उनकी व्यापक दृष्टि होती है, उन्हें चौबीसों घंटे काम से जुड़े रहने में भी कोई मुश्किल नहीं होती है. नये दौर में वे सांस्कृतिक बहुलता के  परिवेश में पल-बढ़ रहे हैं, इसलिए वे कुछ मुक्तमना भी होते हैं, और  प्रयोगशील भी.
घर और कार्य-स्थल की सीमाएं धूमिल हो रही हैं, और अस्थिरता या अस्थायित्व से टकराने की चुनौती बढ़ती जा रही है. यह संक्रमण की वेला उत्साह के साथ तनाव भी दे रही है. परिवार के विचार और रिश्तों को जीने के लिए नये सूत्र और समीकरण की उनकी तलाश इसलिए जारी है.

गिरीश्वर मिश्र


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