केरल : हिंसा के बरक्स
सीपीएम और केरल की उसकी एलडीएफ सरकार, आरएसएस-भाजपा के खास निशाने पर हैं. केरल में कथित ‘लाल-जेहादी आतंक’ का मुकाबला करने के नाम पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा छेड़ी गई ‘जन सुरक्षा यात्रा’ इसी का एक और सबूत है.
![]() केरल : हिंसा के बरक्स |
इस बहुप्रचारित यात्रा में उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. चार-चार राज्यों के भाजपायी मुख्यमंत्रियों और आधे दर्जन से ज्यादा केंद्रीय मंत्रियों को इस मुहिम में केरल में उतारा जाना, इसी की ओर इशारा करता है. दूसरी ओर, इस मुहिम को देश भर में फैलाने की कोशिश में भाजपा अध्यक्ष ने अपने कार्यकर्ताओं को सभी राज्यों की राजधानियों में सीपीएम कार्यालयों पर प्रदर्शन करने का और राजधानी दिल्ली में सीपीएम केंद्रीय कार्यालय पर इस यात्रा के दौरान दस दिन लगातार प्रदर्शन करने का अभूतपूर्व निर्देश दिया है.
आरएसएस-भाजपा इस मुहिम के जरिए पूरे देश को समझाने की कोशिशों में लगे हुए हैं कि उनके कार्यकर्ता केरल और वामपंथ की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति वाली दूसरी जगहों पर भी लगातार कम्युनिस्टों की ‘लाल हिंसा’ के शिकार हो रहे हैं, कि वामपंथी प्रभाव वाले इलाकों में उनके प्रभाव का विस्तार रोकने के लिए उनके खिलाफ व्यवस्थित रूप से हिंसा का प्रयोग किया जा रहा है. बेशक, यह प्रचार कोई नया नहीं है. फिर भी केरल के पिछले विधान सभा चुनाव में एलडीएफ की जीत के बाद से इस अभियान को बहुत तेज कर दिया गया है. इसी क्रम में वह कई बार अल्पसंख्यक समूहों और जमीनी स्तर पर उनके पक्ष में खड़े होने वाले कम्युनिस्टों, जो राजनीतिक-विचारधारात्मक रूप से उसके सबसे कट्टरविरोधी हैं, से हिंसक झड़पों में भी शामिल रहा है.
बहरहाल, 2014 के आम चुनाव में देश भर में अपनी सफलता के बाद भी भाजपा केरल में अपना खाता न खोल पाने के बावजूद अपने मत फीसद में ध्यान देने लायक बढ़ोतरी करने में और पहली बार एक अंक की देहली लांघने में कामयाब रही थी. उसके बाद से केंद्र में मोदी सरकार की मौजूदगी से और उत्साहित आरएसएस-भाजपा ने पिछले विधानसभायी चुनाव में बड़ी कामयाबी के लिए बहुसंख्यक सांप्रदायिकता तथा जातिवाद के मेल समेत सभी तिकड़में ही नहीं आजमाई थीं, सीपीएम का प्रमुख सामाजिक आधार माने जाने वाले निचली जाति के एझवा समुदाय में सेंध लगाने की उम्मीद में एसएनडीपी योगम से जुड़े राजनीतिक संगठन भारत धर्म जागरण सेना के साथ गठजोड़ भी किया था. लेकिन इस चुनाव में भी भाजपा को केरल विधान सभा में पहली बार प्रवेश पाने के अलावा ज्यादा सफलता नहीं मिली. उम्मीद के अनुसार कामयाबी नहीं मिलने की आरएसएस-भाजपा की हताशा ने ही केरल में राजनीतिक हिंसा के मौजूदा चक्र की शुरुआत कराई है.
यह शुरुआत हुई मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र पिनरायी में चुनाव नतीजे की घोषणा के बाद निकल रहे विजय जुलूस पर आरएसएस के हमले से. इस घटना में सीपीएम कार्यकर्ता रवींद्रनाथ की मौत हुई. उसके बाद से चले हिंसा और प्रतिहिंसा के चक्र में अब तक ही आरएसएस के हमलों में सीपीएम के 13 कार्यकर्ताओं की मौत हो चुकी है, और 250 कार्यकर्ता घायल हुए हैं. आरएसएस के लोगों ने सीपीएम और उसके जनसंगठनों के 60 कार्यालयों पर और 165 पार्टी कार्यकर्ताओं के घरों पर हमले किए हैं. लेकिन याद रहे कि भाजपा-आरएसएस की मुहिम सिर्फ ‘लाल आतंक’ के खिलाफ नहीं है. इसमें लाल के साथ जिस तरह ‘जेहादी’ को भी जोड़ दिया गया है, वह महत्वपूर्ण है.
देश की सत्ताधारी पार्टी का जेहाद के साथ कम्युनिस्टों का संबंध जोड़ना सिर्फ निराधार ही नहीं है, सरासर गैर-जिम्मेदराना भी है. लेकिन, अपने खिलाफ लाल आतंक का शोर मचाकर और कम्युनिस्टों को आक्रांता बताकर वे शेष देश में तो वामपंथ के प्रभाव को कुछ फीका करने की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन केरल की जनता तो उनके ‘निदरेष हिंसा के शिकार’ के स्वांग से प्रभावित होने से रही. इसीलिए लाल के साथ ‘जेहादी’ जोड़ दिया गया है, ताकि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की अपनी आजमाई हुई दुहाई को दूसरे हाथ से पकड़े रह सकें. इसीलिए अमित शाह की यात्रा में सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही बुलाया जाता है, जिनकी पहचान सबसे बढ़कर उग्र हिंदुत्ववादी की है.
यह भी संयोगवश नहीं है कि योगी आदित्यनाथ केरल में पहुंचकर ‘लव जेहाद’ का राग छेड़ते हैं और एलडीएफ सरकार की इसे रोकने में विफल रहने के लिए आलोचना करते हैं. लेकिन, कथित ‘लाल जेहादी आतंक’ के खिलाफ इस अभियान की टाइमिंग भी महत्वपूर्ण है. इसे हाई पिच अभियान बनाने का फैसला अगस्त के महीने आरएसएस-भाजपा समन्वय बैठक में लिया गया बताते हैं. याद रहे कि यह वही समय था, जब नोटबंदी की विफलता से लेकर जीएसटी की तकलीफों तक और आर्थिक वृद्धि दर गिरने से लेकर रोजगार में कमी तक आम जनता की जिंदगी के लिए बुरी खबरें आ रही थीं. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर जनता के असंतोष का पारा चढ़ रहा था.
जनता के इस बढ़ते असंतोष को मोदी सरकार और भाजपा के राजनीतिक विरोध की आवाज बनने से रोकने के लिए वामपंथ को कमजोर करने की कोशिश करना खास तौर पर जरूरी है. अब, जब ज्यादातर विपक्षी पार्टियों को या तो सत्ता पक्ष द्वारा साधा जा चुका है, या सीबीआई केस समेत तरह-तरह के मामलों में उलझाया जा चुका है, उन्हें वामपंथ से ही खास खतरा है, जिसकी आवाज राजनीतिक-वैचारिक रूप से प्रखर भी है, और आम जनता के बीच उसकी अनुगूंज भी है. इसीलिए आज वामपंथ पर यह हमला है. पर क्या टाट के पदरे से आंधियां रुक सकती हैं?
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