मुद्दा : स्कूल की राह दिखाना कठिन
एन्युअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन द्वारा 2016 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 11 से 14 वर्ष की उम्र के 3.5 प्रतिशत और 15 से 16 के बीच की आयु के 13.5 प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है.
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प्राथमिक स्तर पर यह प्रतिशत 2012-13 में 5.6 था. यूनेस्को के इंस्टीटय़ूट फॉर स्टेटिस्टिक्स एंड ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटिरंग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 4.70 करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. ऐसा किस कारण से होता है?
समाजशास्त्रियों का कहना है कि बच्चों द्वारा शिक्षा अधूरी छोड़ देने के अनेक कारण हैं. कई बार सवाल उठता है कि सरकार के सर्व शिक्षा अभियान जैसे पहाड़ी प्रयास कहीं चुहिया नतीजे तो नहीं दे रहे? लेकिन शक्तिमान जैसी संस्थाओं के उदाहरण आस्त करते हैं. यह दृश्य कोलकाता के ताराटोला में निर्माणाधीन मेट्रो लाइन के पास लंबी-चौड़ी झुग्गी बस्ती का है, जिसमें 1300 परिवार रहते हैं. ईजेसी बस्ती नाम से यह इलाका कोलकता पोर्ट ट्रस्ट और रेलवे की जमीन पर बसा है, जिसमें बिहार और उत्तर प्रदेश से पहुंचे विस्थापित रहते हैं. स्कूल के बाद 15 वर्षीय सोनी खातून अपने जैसे बच्चों को खोजने, उनसे बातें करने और उनसे पूछने के लिए ‘ईजेसी बस्ती’ का दरवाजा खटखटाना शुरू करती है कि वे स्कूल जाते हैं, या नहीं या फिर घरवाले उनकी शादी तो नहीं करवा रहे हैं.
एक पुरानी नोटबुक में वह उनके जवाब ध्यानपूर्वक नोट करती है. जल्दी ही सोनी की पड़ोसन सरस्वती धानुक, जो उसी की तरह पंद्रह साल की है, और झुग्गी बस्ती के 13 अन्य बच्चे भी उसके साथ आ जाते हैं. एक गैराज पर रु क कर पता लगाते हैं कि बच्चे नौकरी में हैं या नहीं. उनके जवाब नोटबुक में लिखते चलते हैं. सोनी और सरस्वती शक्तिमान का हिस्सा हैं. शक्तिमान बच्चों का ग्रुप है, जो कभी खुद पढ़ना छोड़ चुके थे, अब वे बाल श्रम से लड़ रहे हैं, बाल विवाह रोक रहे हैं, और बच्चों को वापस स्कूल भेज रहे हैं. सोनी और उसके साथी एक बार किसी बच्चे को गैराज में काम करते या स्कूल न जाते हुए पहचान लेते हैं. फिर ग्रुप बनाकर उसके घर जाते हैं. उसके माता-पिता से बात कर उसे स्कूल भेजने को राजी कर लेते हैं. शुरू-शुरू में उन्हें कोई नहीं सुनता था. लेकिन फिर लोग जुड़ना शुरू हो गए. अब हर कोई उन्हें स्वीकारता है. हाल में उन्होंने इलाके में गैराज में काम कर रहे सात बच्चों की पहचान की. उनमें से चार को स्कूल में वापस भेजा. इसके पहले उन्होंने ने 13 बच्चों, जो स्कूल छोड़ चुके थे, को फिर से स्कूल भेजा. दो बाल विवाह भी रोके. लोकप्रिय कॉमिक बुक हीरो के नाम पर छह साल पहले शुरू किया गया शक्तिमान सर्व शिक्षा अभियान या जैसा कि उसे प. बंगाल में सर्व शिक्षा मिशन के नाम से जाना जाता है, राज्य शासन और सेव द चिल्ड्रन नामक अशासकीय संगठन का सहयोगात्मक प्रयास है. इसमें स्थानीय शासन के प्रतिनिधि और स्कूल भी शामिल हैं.
आज इसमें 19 ग्रुप और 183 बच्चे हैं, जो 14 झुग्गी बस्तियों में सक्रिय हैं. अधिकतर स्कूल छोड़ चुके ये बच्चे बाल अधिकारों में प्रशिक्षित हैं. पार्क सर्कस, राजा बाजार, किद्दरपुर और साइन्स सिटी के पास अपने जैसे दूसरों को छुड़वाने के लिए फैले हुए हैं. वे समुदाय के नेताओं और स्थानीय राजनीतिज्ञों के साथ काम करते हैं. हाथ से सफाई करने, छोटे कारखानों और गोदी में बाल श्रम के मामलों से निपटने के लिए खुद आगे आते हैं. यौन शोषण और खरीद फरोख्त के शिकारों का पता लगाने में भी मदद करते हैं. दरअसल, गंदी बस्तियों और सड़कों पर बच्चों तक पहुंचना एक बहुत बड़ी समस्या है. ऐसे में अशासकीय संस्थाएं महती भूमिका निभा सकती हैं. यह बात शक्तिमान ने साबित कर दी है.
जहां तक सोनू और सरस्वती का सवाल है, दो साल पहले की यह घटना सब कुछ बयां करती है. 2015 में ये दोनों लड़कियां और इनके साथी स्थानीय विधायक के पास गए. उनसे कंक्रीट की एक सड़क बनवाने का अनुरोध किया. शुरू में तो कुछ नहीं हुआ लेकिन इन्होंने हतोत्साहित होकर पीछा नहीं छोड़ा और उनसे कई बार मिले. पहली बार तो उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि विधायक का दफ्तर कहां है. उनका ग्रुप पुलिस वालों और लोकल रहवासियों से रास्ता पूछता हुआ पैदल गया. उन्होंने विधायक का दफ्तर खोज लिया जो उनके ठिकाने से कुछ किलोमीटर दूर था, और उसे सारे पड़ोसियों से दस्तखत करवा कर एक पत्र थमा दिया. अब सड़क बन रही है.
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