मीडिया : बड़े बनाए जाते बच्चे

Last Updated 24 Sep 2017 01:50:56 AM IST

इन दिनों कुछ बड़े विज्ञापनों में नई नस्ल के कुछ बच्चे दिखाए जाते हैं. एक विज्ञापन कुछ ऐसे बच्चों को कुछ इस तरह पेश करता है : दृश्य में दिखने वाले बच्चों की उम्र नौ-दस साल लगती है.


मीडिया : बड़े बनाए जाते बच्चे

उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ लगाकर बड़ा बनाया गया है. एक कमरे में चार आदमी कैरम खेल रहे हैं. एक की मूंछें हैं. एक की दाढ़ी-मूंछ हैं. एक के केश लंबे हैं. ऐसे ही एक और है, और सभी ‘केजुअल्स’ में हैं. एक  बनियान-लुंगी में ही बैठा है.  वे कैरम खेल में बिजी हैं. तभी एक घरवाली (एक नौ-दस साल की बच्ची जिसे साड़ी पहनाकर बिंदी लगाकर पूरी युवती बनाया गया है) आकर अपने आदमी को याद दिलाती है कि तुमको वह चीज लानी थी. खेल में मशगूल मूंछों वाला पहले उसकी उपेक्षा करता है. फिर अचानक अपना स्मार्ट फोन उठाकर एक ‘ऑनलाइन शॉपिंग एप्स’ को सक्रिय कर उस ‘चीज’ का ऑर्डर कर देता है, और घरवाली को दिखा देता है कि वो चीज सीधे घर पहुंच जाएगी. स्त्री खुश होकर घर के भीतर चली जाती है. कैरम का खेल जारी रहता है. अंत में एक सबसे बड़ी ऑनलाइन शॉप का चित्र दिखता है.

इसी तरह से  एक अन्य ऑनलाइन शॉप का विज्ञापन है, जिसमें बच्चे ही बड़े आदमी का काम करते हैं, और जिसकी कैच लाइन है : ‘अब गिरेगी महंगाई’. अंग्रेजी दैनिक पत्र में पूरे पेज में छपे इस रंगीन विज्ञापन में एक ओर एक बाल-युवक खड़ा है, जिसके बाल बड़े हैं और मूंछें हैं. दूसरी ओर एक बाल-पुलिसमैन खड़ा है, जो उक्त ‘कैच लाइन’ की ओर इशारा कर रहा है. त्योहारी सीजन की शुरुआत में ही ऑनलाइन ‘सेल’ का यह विज्ञापन दिया जा रहा है. आगे लिखा है, ‘पॉर्वड बाई जिओ डिजिटल लाइफ’. आप जिओ के श्लेष पर प्रसन्न हो सकते हैं. अंग्रेजी दैनिक के विज्ञापन में कुछ मशहूूर ‘ब्रांड’ दिखाए गए हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं: जीन्स,जैकेट्स, सलवार-कमीज, जूते, ढेर सारे मोबाइल, बॉलीवुड साड़ियां, हैंड बैग, वॉशिंग मशीन, मिक्सी, टीवी सेट, लैपटॉप, बिस्तर के बिछौने, तकिए, परदे, कलाई घड़ी, कप प्लेट, एअर बैग..इनके आगे पुराने दामों को काट, नये ‘गिरे हुए’ दाम लिखे हैं. किसी आइटम पर चालीस-पचास फीसद ‘ऑफ’ है, कहीं अस्सी फीसद है.

त्योहार का सीजन आता है, तो मीडिया में विज्ञापनों की बाढ़-सी आ जाती है, लेकिन इन दिनों जैसी बाढ़ ‘ऑनलाइन शॉपिंग’ की आई है, वैसी न देखी न सुनी. यह ‘डिजिटल क्रांति’ की पूरक लगती है, जिसका इन दिनों बहुत हल्ला है. लेकिन यहां हम न ‘नोटबंदी’ की मार और न ‘जीएसटी’ के दबाव की चरचा करेंगे, हम यहां सिर्फ ‘ऑनलाइन शॉपिंग’ और  उनमें ‘बड़े बना दिए गए डिजिटल बच्चों’ की चरचा करेंगे और सोचना चाहेंगे कि क्या बच्चों को इस तरह बड़ा बनाकर दिखाना, उनको नये ‘अंध-डिजिटल-कंज्यूमर’ की तरह बनाने के दूरगामी सामाजिक प्रभाव हो क्या हो सकते हैं?

अब बच्चों को दाढ़ी-मूंछ लगाकर और बड़ों की आवाज देकर इस तरह बड़ा बना देना न अब ‘कॉमिक’ लगता है, न ‘आनंदकारी’, बल्कि कुछ-कुछ डरावना लगता है. हां, इनको देख यह सवाल जरूर उठता है कि बच्चों को जबर्दस्ती बड़ों की भूमिका में दिखाने से घर में मीडिया के दर्शक बच्चों की मासूमियत को क्या नुकसान हो सकते हैं?

सबसे बड़ा नुकसान तो यही हो सकता है कि बच्चे इनको देख अपने को वक्त से पहले ही ‘युवा’ समझने लगें. इससे उनकी मासूमियत खत्म होती है, और यह बात उनके व्यक्तित्व में कई दोष पैदा कर सकती है. अब तक विज्ञापनों में बच्चों को प्राय: बच्चों की तरह ही दिखाया करते थे और लॉलीपाप या चॉकलेट या किसी पेय का कंज्यूमर बनाया करते थे, लेकिन ये विज्ञापन बच्चों में अभी से ऑनलाइन शॉपिंग और ‘डिजिटल जीवन’ जीने की आदत डाले दे रहे हैं. यह सभी तरह से अनुचित है.

जो लोग डिजिटल क्रांति का झुनझुना बजाकर सबको ‘डिजिटल’ बनाने का आग्रह कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि सब कुछ ‘डिजिटल’ करने के क्या-क्या नुकसान हैं? बाजार आना-जाना, चीजों का छूकर या सूंघकर या देखकर चयन करना एक ऐंद्रिक कर्म है, जो इंद्रियों को जागृत रखता है, जबकि ‘डिजिटल जीवन शैली’ कम्रेद्रियों और  ज्ञानेंद्रियों को ‘कमजोर’ करती है. ऐसे में नई नस्ल के बच्चे कितने मानवीय बनेंगे, यह तो अभी से साफ है. ऐसे विज्ञापन आते रहते हैं और बाल कल्याण मंत्रालय देखता रहता है. यह कौन-सा ‘बाल कल्याण’ है, महाराज कि उनकी मासूमियत पर डाका डाला जा रहा है, और आप सिर्फ देख रहे हैं.

सुधीश पचौरी


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