मीडिया : ‘अंत’ बनाने की कला

Last Updated 17 Sep 2017 01:38:02 AM IST

टीवी की हर बाइट एक कहानी कहती है. हर कहानी एक संदेश देती है, लेकिन संदेश तभी पूरा होता है, जब कहानी अपना ‘अंत’ करती है.


मीडिया : ‘अंत’ बनाने की कला

हमारी समस्या यह है कि हम टीवी की खबर को कहानी की तरह  नहीं पढ़ते. उसके ‘आदि मध्य अंत’ पर नजर नहीं रखते. कैसे रखें? टीवी स्वयं ही हर कहानी के ‘अंत’ का ‘तुरंता अंत’ करता चलता है. टीवी हर पल एक न एक कहानी बनाता-बेचता है. एक कहानी बंद नहीं होती कि वह दूसरी, तीसरी, चौथी, पचासवीं कहानियां कहने लगता है. फिर भी, मीडिया की हर कहानी ‘बे-अंत’ और खुली-खुली रहती है. सोशल मीडिया में उसके अर्थों का घमासान मचा रहता है.
‘मीडिया स्टडीज’ में हम जिस ‘नेरेटोलोजी’ (आख्यान शास्त्र) का सहारा लेते हैं, वह मानती है कि हर ‘बात’ एक ‘नेरेटिव’ (आख्यान) या ‘वृत्तांत’ की तरह होती है. ‘प्रकृत’ या ‘पूर्व-निर्मित’ नहीं. उसे बनाने वाला कोई एक ‘व्यक्ति’ रचनाकार नहीं होता. कई बार उसे ‘समूह’ बनाते हैं, और वह लगातार विकसनशील भी होती है. लेकिन कोई भी कहानी अपना ‘अंत’ अपने आप तय नहीं करती. अंत  उसका रचने वाला ही ‘तय’ करता है. इसीलिए कहानी के ‘अंत’ को ध्यान से ‘पढ़ा’ जाना चाहिए. हिंदी में तो कहावत ही कही जाती है :‘अंत भला सो सब भला’. तीज-त्योहारों पर कही जाने वाली कथाओं में भी यही संदेश निहित रहता है कि ‘जैसे उनके दिन फिरे, वैसे आपके भी फिरे’. और, कुशल कहानीकार कहानी बाद में शुरू करता है, उसका ‘अंत’ पहले तय करता है, और अंत ही ‘आरंभ’ को तय करता है. जब अंत तय हो जाता है, तो आप कहानी को ‘इच्छित’ की दिशा में  मोड़ सकते हैं. ऐसा ही हो रहा है. हम बहुत-सी ‘मुड़ी-तुड़ी’ कहानियों की गिरफ्त में हैं.

अब तक हम आप नेहरूवियन मॉडल से उत्पन्न ‘प्रेमाख्यानों’ में रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों मीडिया में जो बड़ी कहानियां बनी हैं, वे प्रेमाख्यान की तरह नहीं बल्कि ‘घृणाख्यान’ की तरह बनी हैं. यह कहानी का ‘नया सामान्य नियम’ (न्यू नॉर्मल) है. उनके अंत घृणा से प्रेम की ओर आने की जगह, घृणा से घृणा तक दौड़ लगाते हैं. यह ‘प्रेमाख्यान’ की जगह ‘घृणाख्यान’ की स्थापना है, जो भारतीय संस्कृति में कहीं नहीं है. ऐसी तमाम घृणामूलक कहानियां टीवी पर प्रसारित होती रही हैं. वे ‘विक्टिमहुड’ (किसी द्वारा सताए जाने का भाव) से शुरू होती है और किसी को अपनी ‘घृणा’ का ‘विक्टिम’ बना कर यानी बदला लेकर सताती हैं. कलबुर्गी, पंसारे, दाभोलकर की हत्यारी कहानी हों या गौरी लंकेश या अखलाक या पहलू खान या कश्मीर से केरल तक घृणामूलक हत्याओं की अन्य कहानियां; सबका आदि, मध्य, अंत किसी ‘घृणावादी कथाकार’ ने रचा होता है.
और इन कहानियों का लेखक अक्सर कोई व्यक्ति नहीं होता, ‘लिंच मॉब’ यानी ‘उन्मादित भीड़ें’ होती हैं, या ‘अनाम’ हत्यारे. ऐसी कहानियों के लेखक कहानी के आदि, मध्य से अधिक ‘अंत’ को ‘कंट्रोल’ करते हैं. ‘अंत’ को कई बार इस कदर बदल दिया जाता है कि वह ‘आदि मध्य’ के ‘अनुसार’ हुआ नहीं लगता. जादुई यथार्थ के सर्जक ‘गेबिएल गार्सिया मारखेज’ की कहानी ‘अ क्रोनिकल ऑफ डेथ फोरटोल्ड’ की तरह, आजकल अपने यहां भी बहुत-सी कहानियों का ‘अंत’ पहले ही तय कर दिया जाता है. फिर भी, न जाने क्यों महसूस होता है कि कहानी का अंत वही नहीं है, जो बताया जा रहा है बल्कि इसका कोई ‘और’ अंत भी हो सकता है. अंत अन्याय की दिशा से हटकर न्याय की दिशा में भी मुड़ सकता है.
‘मीडिया स्टडीज’ में ‘डकिंस्ट्रक्शन’ यानी ‘विखंडन’ के जनक जॉक देरिदा का ‘उत्तर संरचनावाद’ इतना भरोसा तो देता ही है कि कहानी का रचनाकार उसके ढांचे का मालिक भले हो, उसके ‘अर्थ’ यानी ‘अंत’ का मालिक नहीं होता. उसके अंत का मालिक पाठक/दर्शक ही होता है. वह चाहे जैसा अंत करे. समकालीन ‘घृणा कथाकारों’ ने कहानी के ‘अंत’ को बनाने की नाना कलाएं विकसित की हैं. लेकिन हर कहानी का अंत फिर भी खुला रह जाता है. इसलिए भरोसा बना रहता है कि आज एक घृणावादी कथाकार कहानी का घृणावादी तरीके से ‘अंत’ कर रहा है, हो सकता है कल कोई ‘प्रेमाख्यानवादी पाठक’ आएगा और कहानियों के किए गए ‘अंत’ को बदल देगा. मीडिया स्टडीज में टीवी में आई ऐसी कहानियों के अंत के बदलने की कला पर ‘केस स्टडीज’ की जानी चाहिए ताकि ऐसे ‘अंतों’ को बनाने की कथित ‘कलाओं’ को समझा जा सके.

सुधीश पचौरी
लेखक


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