प्रसंगवश : हिन्दी की शक्ति : स्रोत और सीमा

Last Updated 17 Sep 2017 01:36:04 AM IST

हिन्दी आज भी अपने लिए न्याय की गुहार कर रही है. आज से सौ वर्ष पहले 1918 में इंदौर में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की गई थी.


प्रसंगवश : हिन्दी की शक्ति : स्रोत और सीमा

बड़े विचार के बाद देश के संविधान ने भी 1949 में हिन्दी को राजभाषा बनाने के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी थी. यह वही हिन्दी है, जिसकी आवाज गैर-हिन्दी क्षेत्र की अनेक महान हस्तियों ने उठाई थी, यह जरूर है कि उनके दिमाग में एक देश का नक्शा था, एक राष्ट्रीयता का सपना था, और वह क्षेत्र से बड़ा था. राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रश्न ऐसे थे, जिन पर किसी समझौते का सवाल नहीं उठता था.
समय ने पलटा खाया और हम सीखने लगे कि एक देश तो हम थे ही नहीं; हम तो कई देश थे, यहां कई संस्कृतियां थीं, कई नस्लें, कई जातियां और भी सब कुछ कई-कई हो गया. भारत देश को ‘इंडिया’ में बदल कर कुछ इस तरह से बहुलताओं वाला राष्ट्र बना दिया गया कि आज सत्तर साल तक हम लोग इस बहस में उलझे पड़े हैं कि ‘इंडियननेस’ क्या है ? यह कहां से आई? उत्तर आधुनिक विखंडनवादी तो कोई पक्का सत्य मानते नहीं, सो उनके लिए तो भारत ही क्या सब कुछ प्रश्नांकित या ‘कंटेस्टेड’ है ही. भारत के ही निवासी भारतीयों और भारतीयता को ले कर हममें से अनेक लोग शंकालु हैं. 

ऐसी स्थिति में पूरे विश्व में संभवत: भारत के ही सिर पर इसका सेहरा बंधा है, जहां किसी देश की सर्वप्रचलित भाषा को उसके प्रयोग के अधिकार से वंचित किया गया हो और उसके बोलने वालों को शिक्षा, न्याय, उद्यम, उद्योग के अवसर में लगातार भेदभाव और दमन का सामना सिर्फ इसलिए करते रहना पड़ रहा है कि वे अपने देश की भाषा बोलते हैं. भारत समाजवादी देश है, जनता की सरकार है पर जनता को जनता की भाषा में न शिक्षा की अच्छी व्यवस्था है, न उस भाषा में न्याय मिल सकता है, और न नागरिक प्रशासन की सुविधाएं ही अपनी भाषा में पूरी तरह मिल सकी हैं. दूसरी तरफ, अंग्रेजी को लगातार आरक्षण दिया जाता रहा है ताकि उसका रुतबा बना रहे. विचारना होगा कि यह किसके लाभ और कल्याण के लिए किया गया. शासन का उद्देश्य तो जन-कल्याण है. अंग्रेजी को स्थापित करके किसके कल्याण की व्यवस्था होती है, इस पर विचार की आवश्यकता है. अंग्रेजीदां भारत की जनसंख्या में कितने प्रतिशत हैं, और उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, यदि इस पर थोड़ा भी गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह संपन्न और समृद्ध तबका ही है. वह बलशाली है और हिन्दी पट्टी, जिसे अर्थशास्त्रियों ने ‘बीमारू’ क्षेत्र भी घोषित किया था, आर्थिक दृष्टि से विपन्न है. विकास की दृष्टि से अन्य क्षेत्रों से बेहद पिछड़ा है. भाषा, शिक्षा और विकास, तीनों परस्पर जुड़े हुए हैं. आज हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में खिचड़ी भाषा, नकली (या नकल प्रधान!) शिक्षा और कुंठित आर्थिक विकास का नजारा किसी से छिपा नहीं है.
चूंकि भाषा समाज के जीवन और प्रयोग से जुड़ी होती है, उपर्युक्त परिस्थिति में भी हिन्दी भाषा व्यापक भारतीय समाज द्वारा पारस्परिक संवाद के लिए प्रयुक्त हो रही है. इसमें देश की संस्कृति की धड़कनें सुनी जा सकती हैं. भारत के बाहर अनेक देशों में जहां भारतवंशी रह रहे हैं, वहां हिन्दी प्रचलित है, और सांस्कृतिक सेतु का कार्य कर रही है. यह जरूर है कि ज्ञान-विज्ञान और प्रशासन के क्षेत्रों में प्रतिकूल परिस्थिति के कारण अन्यमनस्क होने से इसका विस्तार बाधित रहा है.
लोकतंत्र में भाषा की भूमिका को अधिक दिनों तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जनता को उसकी अपनी भाषा में जीने का अवसर मिलना चाहिए. आज जब सृजनात्मकता और नवाचार को लेकर देश उत्साहित है तो हिन्दी को अवसर मिलना चाहिए. विशेष रूप से शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के रूप में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को अनिवार्य होना चाहिए. भारत और भारतीयता की स्मृति और उसकी जीवंतता बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं का प्रयोग जरूरी है. अंग्रेजी उन अनुभवों और अभिव्यक्तियों के लिए अपरिपक्व है, जो भारतीयता को परिभाषित करते हैं. आज हम अपनी पहचान अंग्रेजी के माध्यम से करते हैं. अनुवाद और अनुकरण बनते जा रहे हैं. अत: भाषा की उपेक्षा न कर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को समर्थ बनने की जरूरत है. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ये शब्द आज भी सटीक हैं : 
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किए, रहत मूढ़ सब कोय.
निज भाषा उन्नति बिना, कबहूं न ह्वैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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