परत-दर-परत : सरकारी उपभोक्तावाद का उदाहरण
बुलेट ट्रेन वाले भारत और बिना बुलेट ट्रेन वाले भारत में क्या फर्क है? मेरा जवाब होगा : मूलत: कोई फर्क नहीं है.
परत-दर-परत : सरकारी उपभोक्तावाद का उदाहरण |
इस हफ्ते प्रधानमंत्री ने जिस बुलेट ट्रेन का शिलान्यास किया, वह दिल्ली से कोलकाता या मुंबई से चेन्नई तक की दूरी नहीं नापेगी. अहमदाबाद से चलेगी और लगभग 500 किलोमीटर दौड़ने के बाद मुंबई पहुंच जाएगी. या, मुंबई से चलेगी और अहमदाबाद पहुंच जाएगी. मैं नहीं समझता कि मुंबई या अहमदाबाद के किसी निवासी ने बुलेट ट्रेन की मांग की है. फिर भी केंद्र सरकार इन दोनों शहरों को जबरदस्ती यह उपहार देना चाहती है, ताकि भारत के लोग गर्व कर सकें कि उनके देश में भी बुलेट ट्रेन चलती है, और गुजरात के लोग गर्व कर सकें कि यह ट्रेन उनके राज्य में चलती है.
बहुत-सी चीजें होती हैं, जिनके बिना जीवन बखूबी चल सकता है. फिर भी हम उन्हें खरीदते हैं, इस्तेमाल करते हैं, ताकि दिखा सकें कि हमारी जिंदगी दूसरों से बेहतर है. इसी को उपभोक्तावाद कहते हैं. जैसे उद्योगपति मुकेश अंबानी ने अपने लिए जो घर बनाया है, उस लागत से एक और ताजमहल खड़ा किया जा सकता है. उनका परिवार इतना बड़ा भी नहीं है कि उन्हें विशाल प्रासाद की जरूरत हो. अत: अपार पैसा खर्च कर जो आलीशान भवन उनने बनवाया है, उसका महत्त्व उपयोगिता से ज्यादा शान-शौकत से है. पैसा बोलना भी तो चाहिए.
लेकिन भारत सरकार के पास बुलेट ट्रेन चलाने के लिए न पैसा है, न टेक्नोलॉजी. नरेन्द्र मोदी के प्रयत्नों से भारत एक संपन्न देश बन गया होता या इसकी थोड़ी भी संभावना होती, तो बुलेट ट्रेन के खिलाफ कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं होता. लेकिन जिस देश के पास इतना पैसा नहीं है कि एक महीने में सभी जरूरतमंदों के लिए मुफ्त शौचालय बना दे, सभी स्कूलों में जरूरत के अनुसार शिक्षकों की व्यवस्था कर दे और या हर शहर में एक उम्दा अस्पताल खोल दे, वह अगर अपने दो शहरों के बीच बुलेट ट्रेन चलाने की कल्पना से आह्लादित है, तो मानना पड़ेगा कि उस देश के मानस तंत्र में कोई बुनियादी खामी है.
कहावत है, मुफ्त की बछिया के दांत नहीं गिने जाते. प्रधानमंत्री ने देश को बतलाया है कि इस परियोजना पर भारत सरकार के खजाने से एक रु पया भी खर्च होने नहीं जा रहा है. बुलेट ट्रेन तो हमें मुफ्त मिल रही है. वे दशक हमारे बीच से अभी-अभी गुजरे हैं, जब कहा जाता था कि ‘फ्री लंच’ नाम की कोई चीज नहीं होती है. हमें, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है. यहां तक कि मां का दूध बच्चे को भले फ्री मिलता हो, पर वह देश को फ्री नहीं मिलता. प्रसूता माताएं स्वस्थ और सक्षम रहें, इसके लिए देश को कई तरह के कार्यक्रम चलाने पड़ते हैं. इन पर खर्च होने वाला पैसा ही वह कीमत है, जो देश को मां के दूध के लिए चुकानी पड़ती है. ये बातें हम जानते नहीं थे, डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए नवउदारवादी कार्यक्रम के तहत सरकार और अर्थशास्त्रियों ने हमें बताया. मनमोहन सिंह का यह वाक्य अभी भी जन मानस में गूंजता है कि रु पये पेड़ पर नहीं उगते. लेकिन यही वजह है कि कोई चीज फ्री मिल रही है, तो हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए.
आधुनिक अर्थव्यवस्था में अमीर देश गरीब देश को जब भी कुछ देता है, तो मान कर चलना चाहिए कि वह कुछ लेने के लिए ऐसा कर रहा है. सारे आंकड़े बतला रहे हैं कि बुलेट ट्रेन हम ले नहीं रहे हैं, यह हमें दी जा रही है. कोई देश अचानक हम पर मेहरबान हो जाए. मामूली शतरे पर एक लाख करोड़ रु. के बराबर का कर्ज हमें देने लगे तो सोचना चाहिए कि जरूर इसमें कोई पेच होगा. सस्ती हवाई यात्राओं के इस दौर में तेज और महंगी रेलगाड़ियों की कोई जरूरत नहीं है. हमें तो सस्ती और सुरक्षित रेलगाड़ियां चाहिए. आलम यह है कि आरक्षण चाहिए तो हफ्तों-महीनों पहले टिकट कटाना पड़ता है. अभाव और दुर्लभता के इस वातावरण में एक छोटी-सी बुलेट ट्रेन हमारी किस जरूरत को पूरा करेगी; यह सोच पाना असंभव है. लगता तो यही है कि इससे हमारा नहीं, जापान का भला होगा, उसकी टेक्नोलॉजी बिकेगी, उसके देश में रोजगार पैदा होगा और नकारात्मक ब्याज दर के कारण जो पैसा बैंकों में फालतू पड़ा हुआ है, उसका कुछ उपयोग हो सकेगा.
मुझे लगता है कि पूंजी को ले कर भविष्य में दो तरह की समस्याएं पैदा होने वाली हैं. एक उनके लिए जो पूंजीहीन हैं. दूसरी उनके लिए जिनके पास जरूरत से ज्यादा पूंजी है. चीन, जापान, जर्मनी आदि अनेक देशों के पास इतनी पूंजी होगी कि उसका विनिवेश नहीं कर पाएंगे. दूसरी तरफ, भारत, बांग्लादेश, नेपाल आदि अनौद्योगीकृत देशों में राष्ट्र निर्माण के लिए जरूरी पूंजी नहीं होगी. वे विदेशी कर्ज पर निर्भर रहेंगे और उनका आयात उनके निर्यात से हमेशा ज्यादा होगा. वस्तुत: कर्ज देने वाले संपन्न देश ही यह तय करेंगे कि विकासशील देशों को किन चीजों की जरूरत है. उनके लिए यह रास्ता अपनी अतिरिक्त पूंजी के विनिवेश का रास्ता होगा. कर्ज लेने वाले देशों को उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा नहीं मिलेगा, अपने उपभोक्तावादी शौकों को पूरा करने के लिए पैसा मिलेगा. यह एक नये वैश्विक असंतुलन के उदय की चेतावनी है.
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