परत-दर-परत : अम्बेडकर का धर्म परिवर्तन जरूरी था?

Last Updated 07 May 2017 05:06:48 AM IST

डॉ. भीम राव अम्बेडकर की यह उक्ति आज भी हमारे कानों में गूंजती है : ‘मेरा जन्म हिंदू के रूप में हुआ है, लेकिन मैं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं.’


डॉ. भीम राव अम्बेडकर

इसका कारण हिंदू धर्म से उनकी घृणा नहीं, वितृष्णा थी. उन्होंने हिंदू समाज व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए अथक प्रयास किया. निश्चय ही वे अपने दलित समाज की ओर से बोल रहे थे, पर उनके तकरे पर गौर किया जाए तो वास्तव में वे पूरे हिंदू समाज के भले के लिए बोल रहे थे. अपनी लगभग एक-चौथाई आबादी को नीच कह कर और अस्पृश्य बना कर हिंदू समाज ने अपने ही विकास को अवरु द्ध कर लिया. यूरोप प्रगति कर सका क्योंकि वहां एक न्यूनतम स्तर पर अवसर की समानता उपलब्ध थी. ऐसे वातावरण में ही योग्यता की प्रतिद्वंद्विता संभव होती है. भारत का पूंजीवादी विकास भी तेजी से नहीं हो रहा है, इसका एक बड़ा कारण यही है-अवसर की प्रतिद्वंद्विता का अभाव.

यह प्रसंग मैं इसलिए छेड़ना चाहता हूं कि आज दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग यह दावा करने में प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है कि वह हिंदू नहीं है. मानो हिंदू न रह जाने से उसकी सभी समस्याओं का समाधान निकल आएगा. मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि आज के दलित चिंतक डॉक्टर साहब से ज्यादा बुद्धिमान या दलित समुदाय के ज्यादा खैरख्वाह हैं. अपने वचन की रक्षा करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने 1956 में धर्म परिवर्तन कर लिया. हिंदू से बौद्ध हो गए. इस घटना को बहुत रेडिकल या क्रांतिकारी मानने की परंपरा है. आज भी समय-समय पर दलितों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के समाचार आते रहते हैं.

लेकिन कई बार मुझे लगता है कि डॉ. अम्बेडकर इस जगह गच्चा खा गए. बौद्ध हो जाने पर भी वे तकनीकी तौर पर हिंदू ही रहे क्योंकि भारत के संविधान में हिंदू शब्द को परिभाषित तो नहीं किया गया है, पर उसकी व्याख्या में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बौद्ध, जैन और सिख, ये सभी हिंदू हैं. निश्चय ही बौद्ध धर्म में अनेक खूबियां हैं. उसका सबसे बड़ा आकषर्ण है कि उसमें जात-पात के लिए कोई स्थान नहीं है. दलित नेता के सामने सबसे बड़ी समस्या जाति को तोड़ना ही था. लेकिन इससे अस्तित्व की मूल समस्या हल नहीं होती क्योंकि बौद्ध धर्म प्रगतिशील होते हुए भी आखिर धर्म ही है.

असल सवाल यह है कि क्या मनुष्य किसी परमात्मा, किसी पैगंबर, किसी वेद, कुरान या बाइबिल, किसी धर्म के बिना जी नहीं सकता?   
डॉक्टर साहब अपने समय के सब से प्रखर और प्रशस्त दिमाग वाले थे. वे निश्चय ही जानते होंगे कि धर्म एक बहुत बड़ी भ्रांति है. फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? बौद्ध धर्म का चुनाव करने के लिए उन्होंने बहुत वैज्ञानिक तरीके से काम किया था. सभी धर्मो का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए उन्होंने पाया कि बौद्ध धर्म सब से श्रेष्ठ है. लेकिन धर्म परिवर्तन की व्यग्रता में वे यह भूल गए कि बौद्ध धर्म भी तो धर्म ही है, जिसका अपना एक ढांचा और अपना एक अनुशासन है. नि:संदेह डॉ. अम्बेडकर ने अपना अलग ढांचा बनाया और इसे नवयान कहा.

लेकिन यह भी, आखिरकार, एक धार्मिंक व्यवस्था ही थी. डॉक्टर साहब का और सब कुछ आज भी प्रासंगिक और उपयोगी है. पर बौद्ध धर्म अपनाने वाली बात कुछ जमती नहीं है. दलितों में से दस प्रतिशत लोग भी बौद्ध नहीं बने. जो बने,  क्या उनका जीवन देख कर किसी को बुद्ध की या अम्बेडकर की याद आती है? डॉ. अम्बेडकर ब्राह्मणवाद के सब से बड़े आलोचक थे. वे इसीलिए आर्थिक बराबरी के समर्थक थे कि उससे ब्राह्मणवाद को खत्म करने में मदद मिलेगी. लेकिन धर्म इस रास्ते में सब से बड़ी बाधा है. आज तक सभी धर्मो ने सामाजिक समता का संदेश दिया पर आर्थिक विषमता पर आधारित व्यवस्था को खत्म करने की अपील किसी ने भी नहीं की. डॉ. अम्बेडकर ने जिस बौद्ध धर्म को चुना, वह भी समाज में आर्थिक विषमता को चुनौती देकर कोई वैकल्पक व्यवस्था खोजने पर जोर नहीं देता. बौद्ध धर्म ने सामाजिक असमानता पर प्रहार किया लेकिन चूंकि सभी प्रकार की विषमताओं की जड़ आर्थिक असमानता पर उसकी नजर नहीं गई, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, इसलिए जाति प्रथा भी, हलका-सा झटका खाने के बावजूद, और मजबूत हो गई.

चीन और वियतनाम, दोनों देशों में जब समाजवादी क्रांति हुई, तब उसने बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंका. बौद्ध जापान, श्रीलंका, थाईलैंड आदि में बचे हैं, क्योंकि वहां पूंजीवाद है. धर्म अपने आप में एक क्रांति थी, जब उसने कल्पना की कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं. भारत इस मामले में और आगे बढ़ा कि उसने संपूर्ण प्राणी जगत में ईश्वर का अंश देखा. लेकिन धर्म इससे आगे बढ़ नहीं सका. उसके इस अधूरे काम को पूरा किया समाजवाद के विचार ने. समाजवादी समाज में किसी को धर्म की जरूरत नहीं होगी. धर्म समाज में कोई संस्थागत क्रांति नहीं ला सकता क्योंकि वह कुछ भ्रांतियों और व्यामोहों पर आधारित है. दुख से भरी हुई दुनिया में धर्म सुख नहीं दे सकता, शांति जरूर प्रदान कर सकता है. क्या इस शांति की तलाश में ही डॉ. अम्बेडकर ने तथागत की छाया में शरण ली?

राजकिशोर
लेखक


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