वैश्विकी : उपग्रह कूटनीति से पाक पड़ा अलग

Last Updated 07 May 2017 05:00:02 AM IST

प्रयोगधर्मी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पड़ोसी देशों के लिए दक्षिण एशियाई उपग्रह जीसैट-9 ‘सौगात’ के रूप में लांच करके वैिक राजनीति में एक अनोखी कूटनीति का सिलसिला शुरू किया है.


वैश्विकी : उपग्रह कूटनीति से पाक पड़ा अलग

इस कूटनीति के दो आयाम साफ तौर पर दिखाई दे रहे हैं. पहला, दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) में भारत का दबदबा बढ़ेगा; और दूसरा, पाकिस्तान इस संगठन में अलग-थलग पड़ जाएगा. दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद नेपाल में हुए सार्क के 18 वें सम्मेलन में जब इस तरह के उपग्रह को लांच करने की इकतरफा पेशकश की थी, उस समय पाकिस्तान ने इस अभियान से अपने को अलग रखने का इरादा जाहिर कर दिया था.

दरअसल, 235 करोड़ की लागत से बना जीसैट-9  भूस्थितिक संचार उपग्रह है. इसमें दूरसंचार, टेलीविजन, डीटीएच, वी-सैट, टेली एजुकेशन और टेलीमेडिसिन शामिल हैं. यह भूकंप, चक्रवात, बाढ़ और सुनामी जैसी आपदा की स्थिति में बेहतर प्रबंधन मुहैया कराने में मददगार होगा. लिहाजा, ये सार्क देशों के लिए बड़े काम का है और इसलिए उनके नेताओं ने भारत के प्रति आभार जताया है.

आम तौर पर सभी देश और उनकी सरकारें अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए किसी न किसी कूटनीति का इस्तेमाल करती हैं. इस मायने में प्रधानमंत्री मोदी की ‘उपग्रह कूटनीति’ सर्वथा नई नहीं है. 1979 में तब के भारतीय विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब चीन की यात्रा की थी, तो उसे ‘टोही मिशन’ का नाम दिया गया था. माना गया था कि उनकी यात्रा से एशिया में नये शक्ति संतुलन की शुरुआत हो सकती है. उनकी यात्रा का मकसद यह जानना था कि 1962 के युद्ध के बाद भारत-चीन संबंधों में जो तल्खी आई है, उसमें क्या बदलाव आए हैं. इससे पहले 1975 में, चीन ने भी भारत का रुख भांपने के लिए अपने टेबिल-टेनिस खिलाड़ियों का एक दल भारत भेजा, जिसे ‘पिंगपांग डिप्लोमेसी’ कहा गया. लेकिन वैिक राजनीति में अमेरिका के विदेश सचिव (मंत्री) रहे हेनरी किसिंगर की ‘शटल डिप्लोमेसी’ सबसे ज्यादा चर्चित रही है.

अरब-इस्रइल विवाद को हल करने की दिशा में ‘शटल डिप्लोमेसी’ बहुत कारगर हथियार साबित हुई थी. इसका अर्थ दूसरे देशों के शासकों के साथ बैडमिंटन के शटल कॉर्क की तरह जल्दी-जल्दी यात्रा करके बातचीत करने से था. दरअसल, कूटनीति शांति स्थापित करने का जरिया है. यदि कोई देश कूटनीति का इस्तेमाल करने की क्षमता नहीं रखता तो वह अपने राष्ट्रीय हितों का न तो संरक्षण कर सकता है और न ही इसे आगे बढ़ा सकता है. तब उसके पास सिर्फ युद्ध का ही विकल्प रह जाता है. अलबत्ता, सभी जिम्मेदार देश संभावित युद्ध टालने के लिए कूटनीति का इस्तेमाल करते हैं.

मोदी की ‘उपग्रह कूटनीति’ को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए. आम तौर पर भारत पर यह आरोप जड़ा जाता है कि वह अपने पड़ोसी देशों के साथ बेहतर रिश्ते बनाने में विफल रहता है. उम्मीद है कि मोदी की ‘उपग्रह नीति’ से द.एशिया की राजनीति में एक नया समीकरण और नया शक्ति संतुलन पैदा होगा. इससे भारत पर लगने वाले आरोप कमजोर होंगे और उसकी साख बढ़ेगी.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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