भारत-तुर्की : कोष्ठक के बावजूद रिश्ते
तुर्की के राष्ट्रपति रसेप तैय्यब एदरेगन ऐसे समय भारत यात्रा पर आए जब दोनों देश विश्व राजनीति में स्थायी और महत्त्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित-सुरक्षित करने के लिए लगातार प्रयासरत हैं.
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इस लिहाज से अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में और खासकर मध्य एशिया की राजनीति में भारत और तुर्की दोनों के लिए एदरेगन की इस यात्रा का विशेष महत्त्व है.
यह संयोग मात्र नहीं है कि पार्टी और विचारधारा दोनों आधार पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तुलना तुर्की के राष्ट्रपति एदरेगन के साथ की जा रही है. एदरेगन की पार्टी जहां इस्लामी रुझान वाली है, वहीं प्रधानमंत्री मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हिन्दू रुझान वाली है. दोनों ही देशों का राजनीतिक ढांचा धर्मनिरपेक्ष है. तुर्की और भारत दोनों ही देशों के संविधान धार्मिक आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं यानी धर्मनिरपेक्ष हैं. मुस्लिम बहुल देश होने के बावजूद वहां के समाज में मुस्लिम रीति-रिवाजों को मानने की आजादी नहीं है.
दरअसल, मुस्तफा कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता की विरासत के संरक्षण का आधार वहां की सेना और सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है. लिहाजा संवैधानिक दायरे में रहकर ही इस्लामी एजेंडे को लागू किया जा सकता है. पिछले दस-पंद्रह साल से राष्ट्रपति एदरेगन अपने इस्लामी एजेंडे को लागू करने के लिए लगातार संघषर्रत हैं. अब जाकर उन्हें थोड़ी-बहुत सफलता मिली है. लेकिन अभी भी उन्हें धर्मनिरपेक्ष ढांचे की जगह इस्लामी ढांचे को आगे बढ़ाने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. प्रधानमंत्री मोदी भी संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत अपनी पार्टी के हिन्दू एजेंडे को लागू करना चाहते हैं.
बड़ा सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी और तुर्की के राष्ट्रपति एदरेगन की सरकार या पार्टी के स्तर पर इतनी वैचारिक समानता क्या दोनों देशों के रिश्ते को नई ऊंचाइयां देने में मददगार हो सकती है? इसका सीधा और सरल जवाब हां या ना में नहीं दिया जा सकता. कूटनीतिक स्तर पर तो यह कहा जा सकता है कि दोनों शीर्ष नेताओं की मुलाकात में आपसी रिश्तों को नया आयाम देने के लिए पारस्परिक सहमति कायम हुई है. भारत सीमा पार आतंकवाद और अलगाववाद जैसी चुनौतियों से लगातार जूझ रहा है. इसलिए भारत इसका मुकाबला करने के लिए अधिक-से-अधिक देशों का सहयोग चाहता है-खासकर मुस्लिम देशों का. भारत की तरह तुर्की भी इन दोनों ही खतरों का सामना कर रहा है.
इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में आतंकवाद और अलगाववाद के मसले पर दोनों देशों के बीच साझा रणनीति बन पाए. लेकिन तुर्की के राष्ट्रपति एदरेगन की वैचारिक सोच और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा इसके आड़े आ सकती है. तुर्की का इस्लामी देशों में बहुत आदर-सम्मान है. पाकिस्तान के साथ इसके अच्छे रिश्ते हैं. दोनों देशों की नौसेना एक अंतराल पर निरंतर सैन्य अभ्यास करती हैं. तुर्की पाक से 52 सुपर मुश्काक ट्रेनर जेट खरीद रहा है. उसके पायलटों को इसके जरिये पाकिस्तान प्रशिक्षण देगा. यह भी गौर करने वाली बात है कि एदरेगन सात बार पाकिस्तान जा चुके हैं. इसके अलावा, तुर्की-पाकिस्तान के बीच 10 विलियन डॉलर का सालाना कारोबार है. इसके अलावा, पाकिस्तान साइप्रस, अजरबैजान और अम्रेनिया पर तुर्की के दृष्टिकोण को मान्यता देता है. बदले में तुर्की कश्मीर पर पाकिस्तान के दृष्टिकोण की समर्थन करता है.
इसलिए एदरेगन ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत को शामिल करने के साथ-साथ पाकिस्तान की सदस्यता का भी समर्थन किया. यह बात भारत को नागवार लगी है. लेकिन इसका अर्थ बहुत साफ है कि तुर्की भारत से रिश्ते बनाते हुए पाकिस्तान के साथ परम्परित मित्रता को खोना नहीं चाहता. वैसे में जब पाकिस्तान ने एदरेगान के कूप को विफल करने में मदद दी हो. राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता.
मगर क्या तुर्की भारत में सीमा पार से आतंकवादी हमले रोकने को लेकर पाकिस्तान पर राजनीतिक दबाव बना सकता है? यह गंभीर सवाल है जिसका जवाब एदरेगन ने साफ-साफ नहीं दिया. भारत की उम्मीद के विपरीत उन्होंने यह जरूर कहा कि आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा बनाया जाना चाहिए. इसमें एक तरह का हमारा-तुम्हारा आतंकवाद का बंटवारा है. तुर्की चूंकि आईएसआईएस से गुत्मगुत्था है, इसलिए वह इससे तो लड़ लेगा लेकिन कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर बेलाग कहते वक्त सिद्धांत की भाषा बोलेगा. फिर भी आईएस के बाबत उसकी दी जाने वाली खुफिया सूचनाओं का महत्त्व होगा. इससे भारत को फायदा होगा और यह जुगलबंदी द्विपक्षीय रिश्तों को एक नया आयाम देगा.
पाकिस्तान के इतने हिमायती तुर्की से संबंध बनाने के पीछे मोदी की कुछ बातें हैं-अगर तुर्की के आर्थिक विकास और करोबार में भारत से साझेदारी बढ़ी तो पाकिस्तान खुद ब खुद शिथिल मित्र साबित हो जाएगा. जैसा कि पाकिस्तान समर्थक अमेरिका-ब्रिटेन, सऊदी अरब-संयुक्त अरब अमीरात के नजरिये में इसी फैक्टर के चलते बदलाव आया. दूसरी यह कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और लगनशील कूटनीति अहम हित के मसले पर दूसरे देशों के विचार बदलने की ताकत रखते हैं. और यह भी कि दो देशों के बीच विकसित होते संबंध उनके संबंधों की वरीयताओं को भी प्रभावित करते हैं. यही वजह है कि भारत ने मोदी की अगुवाई में चीन से अपने द्विपक्षीय संबंध का उदाहरण लेते हुए तुर्की के कश्मीर और पाकिस्तान के बारे में उसके मतभेदों को दरकिनार करते हुए परस्पर करीब आने की कोशिश की है. यह भारत का लम्बे समय में फायदा दिलानेवाला निवेश है. आतंकवाद के खिलाफ एदरेगान का बयान पहली जीत है.
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