कॉल ड्रॉप : तलाशना होगा समाधान

Last Updated 29 Apr 2017 04:56:44 AM IST

साल 2015 में देश के दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ऐलानिया अंदाज में कहा था कि सरकार ने कॉल ड्रॉप की समस्या के खिलाफ जंग छेड़ने का मन बना लिया है और अब इस मामले में निजी मोबाइल कंपनियों की ज्यादा नहीं सुनी जाएगी.


कॉल ड्रॉप : तलाशना होगा समाधान

लेकिन इधर जब सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में ग्वालियर में एक मोबाइल टावर को कैंसर फैलाने के आरोप में बंद करने का आदेश दिया, तो निजी दूरसंचार कंपनियां टावरों की कमी का रोना लेकर बैठ गई और धमकी के स्वर में कहने लगीं कि इससे कॉल ड्रॉप की समस्या में और इजाफा हो सकता है.

वैसे तो अब मोबाइल कंपनियों के पास काफी ज्यादा स्पेक्ट्रम है, इसलिए उनके पास सेवा की गुणवत्ता सुधारने को लेकर कोई बहाना नहीं होना चाहिए. लेकिन निजी टेलीकॉम कंपनियों ने साबित किया है कि हर मामले में उनके अपने हित सर्वोपरि हैं, ग्राहक के हित नहीं. हाल में, संचार मंत्रालय से संबंधित स्थायी समिति ने कॉल ड्रॉप पर संसद में जो रिपोर्ट पेश की है, उसमें साफ कहा गया है कि इस समस्या के लिए सरकार, दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) और निजी टेलीकॉम कंपनियां तीनों जिम्मेदार हैं. सरकार और ट्राई शिकायतों पर ध्यान नहीं दे रहे और टेलीकॉम कंपनियां धांधली पर धांधली किए जा रही हैं. एक परीक्षण दिल्ली में 3 से 6 मई, 2016 के बीच किया गया था, जिसमें कॉल ड्रॉप से जुड़े एक और घपले का खुलासा हुआ था. पता चला था कि ये कंपनियां कॉल ड्रॉप पर परदा डालने के लिए रेडियो लिंक टाइमआउट (आरएलटी) जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं.

इस तकनीक के इस्तेमाल से कॉल के बीच में कट जाने अथवा दूसरी से ओर कोई आवाज नहीं सुनाई देने के बावजूद कनेक्शन जुड़ा हुआ रहता है और इसके लिए कॉल करने वाले का बिल तब तक बढ़ता रहता है, जब तक कि वह परेशान होकर खुद फोन न काट दे. चूंकि ऐसी स्थिति में ग्राहक खुद फोन काटता है, इसलिए मोबाइल कंपनियों पर कॉल ड्रॉप का आरोप नहीं लगता. तो सवाल पैदा होता है कि आखिर इस समस्या का हल कब निकलेगा? दिल्ली में ही कुछ इलाके तो ऐसे हैं, जहां किसी भी टेलीकॉम कंपनी का मोबाइल टावर नहीं है, जैसे यमुना नदी के किनारे वाले क्षेत्र. जमीन के ऊपर ही नहीं, भूमिगत मेट्रो में भी ऐसी ही समस्या बेहद आम है क्योंकि वहां भी ज्यादातर टेलीकॉम कंपनियों के टावर मौजूद नहीं है. कॉल ड्रॉप मामले में सख्ती किए जाने के बाद मोबाइल कंपनियां यह आस्त जरूर करती हैं कि वे ऐसे इलाकों में टावर लगाकर सेवा की गुणवत्ता सुधार रही हैं, पर ऐसा हकीकत में उन्होंने किया नहीं. इसकी बजाय आरएलटी जैसे वे तकनीकी इंतजाम जरूर कर लिए, जिससे ग्राहक की जेब तो कटती रहे, पर कॉल ड्रॉप का कोई इल्जाम कंपनियों पर न आए. मूलत: मोबाइल टावरों की कमी ही इस समस्या की अहम वजह है. घनी आबादी वाले इलाकों में मोबाइल कंपनियों ने टावर लगाए हैं, पर उनकी क्षमता से ज्यादा कनेक्शन बांट दिए हैं.

मौजूदा समय में दिल्ली में 34000 मोबाइल टावर है जबकि 50000 से अधिक की जरूरत है. देश में अब तक सिर्फ  425000 टॉवर लगाए जा सके हैं. जबकि बेहतर मोबाइल सेवाओं के लिए देश में अभी कम-से-कम डेढ़ से दो लाख टॉवर और लगाए जाने की जरूरत है. टेलीकॉम कंपनियां कह रही हैं कि सरकार ने जरूरत के मुताबिक टावर लगाने में उनकी कोई मदद नहीं की. हालत यह है कि सरकारी इमारतों-कॉलोनियों और सेना के छावनियों में वे कोई टावर नहीं लगा सकतीं. स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का खतरा बताकर उन्हें घने शहरी आवासीय इलाकों से तकरीबन बाहर कर दिया गया है. ऐसी जगहें सुनिश्चित नहीं की गई हैं, जहां टावर लगाए जा सकते हैं. ऐसे में वे जाएं तो आखिर कहां जाएं?

टेलीकॉम कंपनियां यह भी कहती हैं कि सरकार डिजिटल इंडिया का नारा तो लगा रही है, लेकिन उसने दूरसंचार सेवाओं को बिजली-पानी की तरह जरूरी सुविधाओं के तौर पर नोटिफाई नहीं किया है. उधर, सरकार के भी अपने तर्क हैं. दूरसंचार मंत्री रवि शंकर प्रसाद के मुताबिक कंपनियां इस बारे में अक्सर स्पेक्ट्रम की कमी का हवाला देती हैं, जो पूरी तरह गलत बात है. इस वक्त मोबाइल कंपनियों के पास काफी स्पेक्ट्रम है, ऐसे में वे सेवा क्वॉलिटी सुधारने की बजाय बहानेबाजी कर रही हैं. टेलीकॉम कंपनियां से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे अमेरिका जैसे विकसित मुल्कों में वे इतनी आसानी से और इतनी छूटों के साथ कोई काम-धंधा कर सकती हैं जितनी आजादी से साथ वे भारत में कारोबार करती हैं.

अभिषेक कुमार
लेखक


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