नक्सलवाद : खात्मा तो जरूरी है

Last Updated 28 Apr 2017 06:59:35 AM IST

पिछले सोमवार यानी 24 अप्रैल को सुकमा जिले के दक्षिणी हिस्से में बरकापाल गांव के पास माओवादियों के हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गए और लगभग बारह जवान घायल हो गए.


नक्सलवाद : खात्मा तो जरूरी है

लगभग 200-300 माओवादियों ने सुरक्षा बल के जवानों पर तब हमला किया, जब वे सड़क निर्माण में लगे कर्मिंयों की सुरक्षा में जुटे हुए थे. माओवादियों की इस क्रूर और हिंसक कार्रवाई का सबसे विद्रूप पहलू यह है कि उन्होंने यह हमला तब किया, जब जवान भोजन की तैयारी कर रहे थे. माओवादी मृत और घायल जवानों के असलहे भी लूट ले गए. खबर तो यह भी है कि माओवादियों ने जवानों के मृत शरीर के साथ अमानवीय व्यवहार भी किया. जवानों के शव को वीभत्स ढंग से चीथड़े करने के अलावा माओवादियों ने कई मृत जवानों के गुप्तांग भी काट दिए थे.

इस घटना के बाद देशभर से माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में सुरक्षा जवानों को फुल पॉवर दिए जाने के लिए भी आवाजें उठ रही हैं. वैसे सुरक्षा बलों पर माओवादियों का यह कोई पहला हमला नहीं है. सरकार और उसके नुमाइंदे भले ही कहें कि ऐसे बर्बर हमले उनकी हताशा के परिचायक हैं, लेकिन कुछ वर्षो में माओवादियों द्वारा की गई कार्रवाइयों पर यदि नजर डालें, तो ऐसा कहीं से नहीं लगता कि ये कार्रवाइयां उनकी हताशा दर्शाती हैं. माओवादियों की हताशा की बात कोई आज नहीं, बल्कि तभी से कही जा रही है, जब 1967 में सिलीगुड़ी के अनाम-से गांव नक्सलबाड़ी में उसका प्रथम प्रस्फूटन हुआ. आखिर उनकी यह कैसी हताशा है, जो उनकी बर्बर कार्रवाइयों में लगातार इजाफा कर रही है.

खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार माओवादियों ने घटना को अंजाम देने से पहले बाकायदा इसकी रिहर्सल की थी. बताया जाता है कि इस घटना को अंजाम देने में तीन माओवादी कमांडरों का विशेष हाथ रहा है. मालूम हो कि घटना को अंजाम देने के कुछ दिनों पहले से ही माओवादियों के फस्र्ट मिलिटरी बटालियन के तीन प्लाटूनों के कमांडर सोनू, अर्जुन और सितू कुछ दिनों से बरकापाल के आसपास ही कैंप किए हुए थे. क्या हताशा में इतनी व्यापक योजना बनाई जा सकती है? इसका जवाब निश्चित रूप से नकारात्मक ही हो सकता है.

ऐसे में कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि माओवादियों की हताशा की बात कर रही सरकार और खुफिया एजेंसियां स्वयं ही गलतफहमी में जी रही हैं. माओवादी गतिशील गुरिल्ला युद्ध शैली का सफल ढंग से संचालन कर रहे हैं, जहां उन्हें जन मिलिशिया का जबर्दस्त समर्थन हासिल है. माओवादियों पर नजर रखने के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने खुफिया एजेंसियों का जाल बिछा रखा है. ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि इसके बावजूद सरकारें सुकमा जैसे बड़े माओवादी हमलों को रोकने में विफल क्यों हो जाती हैं? यूं तो इस प्रश्न का कोई सर्वमान्य जवाब नहीं दिया जा सकता, लेकिन कुछ तथ्य ऐसे जरूर नजर आते हैं, जिन्हें ऐसी घटनाओं के लिए कुछ हद तक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है.

पहली बात तो यह कि हमारे राजनेता बड़ी-बड़ी बातें करना ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझते हैं. वे यह समझने की कतई कोई कोशिश नहीं करते कि उनका बड़बोलापन देश के लिए कितना खतरनाक हो सकता है. भारत सरकार की तरफ से जो यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि माओवादी समस्या लगभग खत्म होने के कगार पर है और पांच साल में इसका पूरी तरह उन्मूलन हो जाएगा. पिछले साल गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस आशय का बयान संसद में दिया था. ऊपरी तौर पर तो इस बयान में कुछ भी गलत नहीं लगता, लेकिन जब जमीनी स्तर पर माओवाद को खत्म करने का कोई ठोस उपाय नहीं किया जा रहा हो, तो ऐसे बयान प्रति-उत्पादकता को जन्म देते हैं. माओवादियों के संदर्भ में भी यही सच है. ऐसे बयान माओवादियों को हिंसक कार्रवाई को अंजाम देने के लिए उकसाते हैं. सुकमा जैसे हमलों को रोक पाने में नकाम रहने का जो दूसरा कारण नजर आता है, वह यह है कि राज्य पुलिस बल और केंद्रीय अर्धसैनिक बल के बीच तालमेल का अभाव है.

सफलता की गारंटी तब होती है, जब माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में राज्य पुलिस हिरावल बने और केंद्रीय बल उसे सहायता प्रदान करे, लेकिन यहां तो उलटा होता दिखाई दे रहा है. जहां सुरक्षा बल के 25 जवान शहीद हो जाते हैं, जबकि राज्य पुलिस के किसी सिपाही को खरोंच तक नहीं आती. यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि 200-300 माओवादी सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए इकट्ठा हो गए और पुलिस को इसकी भनक तक नहीं मिली. केंद्र सरकार माओवादी हिंसा पर लगाम लगाने की बात तो कर रही है, लेकिन जो स्वर निकल रहा है, उससे बदले की कार्रवाई का संकेत मिलता है. देशवासियों के मूड को देखते हुए ऐसी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. केंद्र सरकार ने सुरक्षा बलों से कहा है कि वे प्रमुख माओवादी नेताओं के खिलाफ प्रति-आक्रामक अभियान पर ध्यान केंद्रित करे. कहने की आवश्यकता नहीं कि आने वाले दिनों में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई में तेजी आएगी. माओवादी हिंसा पर लगाम लगाने की बात तो हमेशा की जाती है, लेकिन रणनीति को लेकर हमेशा ही ऊहापोह की स्थिति रहती है.

माओवादी हिंसा के इस तांडव के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि सरकार के पास कोई राष्ट्रीय नीति है. कायदे से इसके लिए ठोस और व्यापक योजना बनाने की जरूरत है और जरूरत है आदिवासी समूह को विश्वास में लेना. इसके अलावा विकास में आदिवासियों का हिस्सा सुनिश्चित करना भी जरूरी जान पड़ता है. जहां तक माओवादियों की बात है, तो उनके लिए शायद ही कहीं सहानुभूति बची हो. अनर्गल हिंसा को प्रश्रय देना अब किसी को भी गवारा नहीं है. माओवादी जो हिंसा कर रहे हैं, वह कतई कोई क्रांतिकारी हिंसा नहीं है, बल्कि शुद्ध रूप से आतंकवादी हिंसा है, जिसका खात्मा आज अत्यंत ही जरूरी हो गया है.

कुमार नरेन्द्र सिंह
लेखक


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