लड़कियां : बचेंगी ही नहीं तो करोगे क्या
कनाडा की लेखिका मार्गेट एडवुड के उपन्यास ‘द हैंडमेड्स टेल’ पर बनी टीवी सीरीज देखी तो दिल घबरा गया.
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इंग्लैंड के भविष्य की गाथा कहती इस सीरीज में ‘हैंडमेड्स’ वे गुलाम औरतें हैं, जो बच्चों को जन्म देने का काम करती हैं. अपने यहां मां की महिमा के आप भजन गाइए लेकिन असल में औरतें बच्चों को जन्म देने वाली मशीनें ही तो मान ली जाती हैं. इस सीरीज के भयावह सच को हमने अपने यहां उतरते कई बार देखा है. तभी तो लिंगानुपात पर हाल की सरकारी रिपोर्ट में हमें कुछ भी अजीब नहीं लगता.
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की ‘यूथ ऑफ इंडिया’ नामक रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षो में लड़िकयों का अनुपात तेजी से गिरेगा. बेशक, मशीन है तो वही प्रॉडक्ट बनाएगी जो हम चाहेंगे. हम चाहते हैं तो लड़की नामक उत्पाद नहीं बनेगा. इस रिपोर्ट के आंकड़े विश्व बैंक के अनुमानों पर आधारित हैं. रिपोर्ट कहती है कि पिछले कुछ वर्षो में लिंगानुपात गिरा है और 2031 तक इसके और गिरने का अंदाजा है. यूं आपको यह जानना जरूरी है कि 2011 में हमारे देश में हर 1000 लड़कों पर सिर्फ 939 लड़कियां थीं.
आंकड़े कहते हैं कि अगर यह प्रवृत्ति जारी रही तो 2021 तक लड़कियों की संख्या 904 रह जाएगी और 2031 तक 898 पहुंच जाएगी. रिपोर्ट यह भी कहती है कि लड़कों की आबादी लगातार बढ़ रही है. तो जियो मेरे लाल..जाहिर सी बात है, लड़के बढ़ेंगे तो लड़िकयां कम ही होंगी. इसकी वजह सभी जानते हैं.
जन्म से पहले भ्रूण की जांच और फिर लड़की का पता चलने पर भ्रूण हत्या. आप डॉक्टर को पैसे खिलाइए-यह बहुत आसानी से हो सकता है. यूं 1994 के गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) कानून के तहत यह गैरकानूनी है. इधर देश में इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि लिंग निर्धारण को वैध बना दिया जाए. अभी अप्रैल में ही महाराष्ट्र विधान सभा की लोक लेखा समिति ने सिफारिश दी थी कि कन्या भ्रूण-हत्या रोकने के लिए प्रसव पूर्व शिशु के लिंग निर्धारण को अनिवार्य बनाया जाए. मतलब अजन्मे शिशु के माता-पिता जब सोनोग्राफी के लिए अस्पताल में आएं तो उन्हें उन्हें लिंग निर्धारण की अनिवार्य जांच की अनुमति दी जाए. फिर गर्भावस्था के दौरान माता-पिता पर नजर रखी जाए.
इससे लिंगानुपात दुरुस्त होगा. सोचने की बात है, ऐसा करने से क्या लिंगानुपात बढ़ेगा-यह तो रसातल में चला जाएगा. इसे आप तंग सरकारी सोच का ही नतीजा कह सकते हैं. पिछले साल केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने भी ऐसा ही गजब का आइडिया पेश किया था. उन्होंने सुझाव रखा कि गर्भावस्था के दौरान बच्चे के लिंग जांच को वैध बनाया जाना चाहिए. इसके पीछे विचित्र तर्क यह था कि इससे बच्चे के जन्म के पंजीकरण कराने में आसानी होगी. उनका कहना था कि इससे डॉक्टर के लिए भी सुरक्षित प्रसव तक गर्भवती महिला की जांच करना आसान होगा.
सरकार क्या करती है- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे दे देती है. आप इनसे खेलते रहिए. स्कीमें बनाइए, फीते काटिए-वाहवाही बटोरिए. फिर चादर तानकर सो जाइए. ठोस काम करने को अभी समय बचा हुआ है. साल 2011 में भी एक काम हुआ था, घटते लिंगानुपात पर माथे पर तेवर पड़े तो सोनोग्राफी सेटर्स में एक सेट-टॉप बाक्स रख दिया गया. मंशा यह थी कि इसके जरिए अल्ट्रासाउंड मशीन के सहारे होने वाली जांच पर निगरानी रखी जाएगी और उसका ब्यौरा रिकार्ड किया जाएगा.
इस ट्रैकर डिवाइस पर बड़े विस्तार से शोध हुआ. पता चला कि इससे लिंगानुपात में कोई खास सुधार नहीं हुआ और यह तरकीब पीसीपीएनडीटी कानून के उल्लंघन के मामलों को पकड़ पाने में खास उपयोगी नहीं है. लिंगानुपात के और घटने से क्या होगा? महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ेगी. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की एक रिपोर्ट कहती है कि इससे बहु विवाह का खतरा बढ़ेगा.
कई जगहों पर विधवाओं की जबरन शादियां और गरीब परिवारों की लड़िकयों को खरीदने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी. लड़िकयां कम होंगी तो अर्थव्यवस्था पर असर होगा. 2015-16 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि श्रम भागीदारी में औरतों की संख्या बहुत कम है. वैतनिक श्रमशक्ति में औरतें सिर्फ 24 फीसद हैं, जबकि विव्यापी औसत 40 फीसद का है. इसलिए आप सोचिए कि औरतों के प्रति अपना नजरिया कैसे बदलेंगे. वे नहीं रहेंगी तो आपके खाने-कमाने के भी लाले पड़ जाएंगे.
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