विश्लेषण : मोदी के बदले बोल
सूरत में ही नहीं, भुवनेश्वर में मोदी के बोल बदल गए. सूरत में उन्होंने कहा कि कई लोग हमारे काम से नाराज हो जाते हैं, व्यापारी वर्ग तो हमसे आजकल नाराज है, लेकिन हमें गरीबों का भी ख्याल करना है.
![]() विश्लेषण : मोदी के बदले बोल |
भुवनेश्वर में उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय का तकाजा है कि मुसलमानों को भी न्याय मिलना चाहिए. मगर इसके पहले मोदी ऐसी बातों के लिए नहीं जाने जाते रहे हैं. तो क्या चुनाव के तकाजे उन्हें सुर बदलने को मजबूर कर रहे हैं?
आखिर, जिस गुजरात मॉडल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश भर में विकास का मुद्दा बनाया था, वहीं अब उन्हें विकास की नहीं, गरीबों की याद आ रही है. इसी तरह भुवनेश्वर में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्हें सिर्फ मुसलमान ही याद नहीं आए, बल्कि अपने पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी उन्होंने कहा कि जरा मौन रहना सीखिए. उनकी सीख के राजनैतिक हलकों में कई मायने लगाए जा रहे हैं. मगर उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा समुदाय आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के पार्टी के प्रस्ताव पर बहस के दौरान पिछड़े मुसलमानों को जोड़ने की बात कहकर तो वाकई सबको चौंका दिया. उन्होंने कहा, ‘जब हम सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो मुसलमानों को भी न्याय मिलना चाहिए.’ तीन तलाक के मसले पर भी मुस्लिम महिलाओं की मदद सहमति से करने की सलाह दी, न कि टकराव से. इस संदर्भ में देखें तो पार्टी कार्यकर्ताओं को मौन रहना सीखने के कई मायने खुलते हैं.
दरअसल, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भारी जीत से उत्साहित भारतीय जनता पार्टी के लिए भुवनेश्वर में पार्टी की 15-16 अप्रैल को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के आयोजन के खास मकसद थे. भाजपा ने करीब 120 संसदीय क्षेत्रों में फैलाव की विशेष रणनीति तैयार की है, जहां भाजपा की अभी तक खास मौजूदगी नहीं रही है. ये क्षेत्र ज्यादातर पूर्वी और दक्षिणी भारत के हैं. ओडिशा पूर्वी और दक्षिण भारत दोनों के मुहाने पर है. दूसरे, आदिवासियों और हाशिए के समूहों को अपनी ओर खींचने का खाका भी तैयार करना है. मोदी ने इसमें मुसलमानों को जोड़ने की पहल की बात करके सामाजिक समूहों का ऐसा इंद्रधनुषी गठजोड़ बनाने की कोशिश का संकेत दिया जो कभी कांग्रेस का आधार हुआ करता था. यह अलग सवाल है कि वे इसे अपनी पार्टी और संघ परिवार के मिजाज में कितना ढाल पाते हैं. बेशक, यह भाजपा और प्रधानमंत्री की नीतियों में एक बड़ा बदलाव है. इसके पहले तक भाजपा और संघ परिवार या प्रधानमंत्री खुद मुसलमानों को किसी तरह का आरक्षण देने के खिलाफ रहे हैं.
अगर पार्टी उन्हें पिछड़ा मान लेती है तो आरक्षण की बहस भी आगे बढ़ सकती है. असल में, एक दावा यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के वोट मिले हैं. अगर यह सही है तो मुसलमानों के बीच पैठ बनाने की रणनीति का लाभ पार्टी को मिल सकता है. बिहार में पिछड़े या पसमांदा मुसलमानों की सहानुभूति नीतीश कुमार ने हासिल की ही है. भाजपा अगर इसके जरिए थोड़ी भी पैठ मुसलमानों में बनाने में कामयाब हो गई तो पूर्वी और दक्षिणी भारत में उसका ज्यादा लाभ मिलेगा जहां मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी संख्या में है. इसकी एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि पूर्वी और दक्षिण भारत में बढ़ने के लिए खालिस हिंदुत्ववादी मुद्दों से काम नहीं चलेगा.
पार्टी को इसका अहसास बिहार के विधान सभा चुनाव में भी हो गया था, और उसने रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी की पार्टियों को साथ लेकर पिछड़ों-दलितों में सेंध लगाने की कोशिश की लेकिन लालू और नीतीश जैसे नेताओं के कारण वह रणनीति कारगर नहीं हो पाई. इसलिए उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बसपा और सपा नेताओं को तोड़कर अपने पाले में लाने की रणनीति अपनाई तो वह कारगर साबित हुई. ध्रुवीकरण भी किया गया. लेकिन पिछड़ों और दलित समूहों में सेंध लगाने से ही उसे बड़ी जीत हासिल हुई. भुवनेश्वर समेलन एक तरह से इसी रणनीति को और व्यापक बनाने का संकेत देता है.
जनाधार को व्यापक करने के इसी मकसद से 20 बरस बाद ओडिशा की राजधानी में बैठक में 1817 के पाइका विद्रोह, जिसे अब पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जा रहा है, से जुड़े परिवारों और लोगों को भी सम्मानित किया गया. अंग्रेजों की जमीन बंदोबस्ती के खिलाफ किसानों के इस विद्रोह में आदिवासियों की विशेष भूमिका थी. बैठक का एक मकसद ओडिशा में भाजपा के पक्ष में हवा को मजबूत भी करना रहा है, जो उसे पंचायत चुनाव में बहती दिखी है. हाल के पंचायत और जिला परिषद चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित बढ़त मिल गई थी. इनमें सबसे ज्यादा झटका कांग्रेस को लगा था, और संकेत हैं कि भाजपा बड़े पैमाने पर कांग्रेस के लोगों पर डोरे डाल रही है.
हालांकि, चुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ बीजद को हल्का झटका ही लगा. लेकिन उसके बाद उसके नेताओं में छिड़ी कलह से पार्टी में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से मोहभंग का अंदाजा लगता है. हाल में बीजद सांसद जयंत पांडा ने ओडिशा के सबसे बड़े अखबार ‘संदेश’ में एक लेख लिखा कि पार्टी को पंचायत चुनाव में हार पर आत्ममंथन करना चाहिए. इससे पांडा के भाजपा की ओर झुकने के कयास भी लगाए जाने लगे.
वैसे भी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दूसरी पार्टियों के नेताओं को भाजपा में लाने की महारत कई राज्यों में दिखा चुके हैं. परंतु गुजरात की चुनौती कम बड़ी नहीं है. वहां हार्दिक पटेल के पाटीदार समाज के लिए आरक्षण के आंदोलन ने जमीनी हालात बदल दिए हैं. सूरत में पाटीदारों का ऐसा दबदबा है कि पिछले दिनों अमित शाह को भी रैली करने में दिक्कत आई थी. मोदी के रोड शो के पहले भी वहां सैकड़ों गिरफ्तारियां करनी पड़ीं. इन वजहों से मोदी के बोल बदल रहे हैं. शायद उन्हें नोटबंदी के बाद गरीबों की हमदर्दी का लाभ खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में चखने को मिला है. इसी वजह से अब गुजरात में भी गरीब उनके निशाने पर हैं. किंतु देखना यह है कि वे अपने इस नये तेवर को हिंदुत्व के मुद्दों के साथ कैसे साध पाते हैं?
| Tweet![]() |