मुद्दा : आकार मापन का विकार
गोरी, लंबी, छरहरी वधू की मांग करने में ना
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हिचकने वालों को 36-24-36 लिखने में खास झिझक नहीं होने वाली क्योंकि उनके बच्चे स्कूलों से यह सीख कर आने वाले हैं. औरत की काया मापने वाले अब तक सिर्फ ग्लैमर वर्ल्ड तक सीमित थे. लेकिन अब हर बच्चा सामान्य रूप से 36-24-36 की माप-जोख को लेकर जिज्ञासु नजर आएगा. औरत की देह नापने वाले अव्वल तो नजरों से ही उसकी समूची काया को ही माप लेते हैं. किन्हीं वीके शर्मा द्वारा लिखी ‘फिजिकल एजुकेशन’ शीषर्क वाली किताब के फिजियोलॉजी एंड स्पोर्ट्स अध्याय में लिखा है-महिलाओं के 36-24-36 आकार को सबसे अच्छा माना जाता है.’ महाशय ने इसका कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है : ‘इसी वजह से मिस वर्ल्ड या मिस यूनीवर्स प्रतियोगिताओं में इस तरह के आकार के शरीर का ध्यान रखा जाता है.’
स्त्री देह को नाप-जोख, आकार-प्रकार और त्वचा के रंग के मुताबिक किसी प्रोडक्ट की तरह पेश करना समाज में बेहद मामूली माना जा रहा है. इसे स्त्री की गरिमा से जोड़ कर देखने भर की संवेदनशीलता समाप्त हो चुकी है. संपादक एवं शीर्ष कहानीकार राजेन्द्र यादव इसे अपनी फूहड़ भाषा में लगभग एक दशक पहले ही दो लोंदे आगे-दो लोंदे पीछे लिख चुके हैं. औरत सिर्फ लौंदो-पौंदों का बोझ ढोने वाला यंत्र भर नहीं है. देह स्त्री के लिए वही स्थान रखती है, जो पुरुषों के लिए है. लेकिन बहुत महीन चातुर्य के साथ पुरुषवादी विचारधारा ने उसे देह के जंजाल में उलझा कर 36-24-36 का मांस-पिंड बनाने में विजय हासिल कर ली है. गली-गली खुले ब्यूटी पार्लर और दुकान-दुकान बिक्री के लिए सजे सौंदर्य प्रसाधनों ने स्त्री को आकषर्क दिखने के लिए निरंतर प्रोत्साहित किया है. अनजाने ही पुरुषों को लुभाने के लिए यह यंत्रवत हर काम करती जा रही है, जिससे उसका समूचा व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न होता जा रहा है.
इंडिया रिटेलिंग डॉट कॉम के अनुसार 2013 में भारत में कॉस्मेटिक इंडस्ट्री 58 बिलियन रुपये की थी. यह 20 फीसद की तेजी से बढ रही है. जाहिर है, स्त्री को मापने-जोखने वालों की बढती तादाद के अनुरूप ही सौंदर्य प्रसाधनों की मांग भी बढ़ती जा रही है. चुस्त वक्ष, गोरी त्वचा, सपाट पेट व ऊंचाई बढ़ाने का लोभ देकर केवल बड़ी कंपनियां ही भारी मुनाफा नहीं वसूल रहीं, बल्कि शुद्ध देसी और गली-मोहल्ले वाली दवाइयों का बड़ा बाजार फैल चुका है. किसी भी पॉपुलर पत्रिका या अखबार में ऐसे पल्रोभन देने वाले छोटे-छोटे विज्ञापन चिल्ला-चिल्ला कर आकार बढाने/घटाने में मशगूल हैं. इतना ही नहीं, खाना बनाने वाले तेल/बनस्पति और मसालों के विज्ञापनों द्वारा भी यही काम किया जा रहा है. स्त्री को सुडौल, सुंदर और दुरुस्त दिखाने के पीछे प्रचार तंत्र के निहित स्वार्थ शामिल हैं. ऐसा ना होता तो देश की 80 फीसदी औरतें रक्त अल्पता से ना जूझ रही होतीं.
ये 36-24-36 के चोंचले स्त्री के मन में गहरे धसते जा रहे हैं. विशेषज्ञ भी स्वीकारते हैं कि सेहतमंद होना, आकार में दिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है. आपकी कमर का साइज क्या है, इससे ज्यादा जरूरी है कि आपको कोई बीमारी ना हो. आपका ब्लड-प्रेसर ठीक काम कर रहा हो और आपकी मानसिक स्थिति सामान्य हो. किसी अंतरराष्ट्रीय माप-जोख में फिट होने से बेहतर है कि आप दैहिक और मानसिक रूप से सामान्य हों. लेकिन बाजार के लिए महत्वपूर्ण है, स्त्री को देह बनाए रखना. उसे आकषर्क और अनाकषर्क के मानसिक दबाव में उलझाए रखना. अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब ऐसा ही एक मामला चर्चा में आया था.
महाराष्ट्र बोर्ड की (12वीं) समाजशास्त्र की किताब में दर्ज था कि बदसूरत या विकलांग लड़की के परिवार को दहेज देना पड़ता है. लड़की की बदसूरती और विकलांगता की आड़ में दहेज की सार्थकता निम्न सोच जताती है. कुतकरे से दहेज की मांग को न्यायोचित ठहराने वालों की कमी नहीं है. अभी भी अपने यहां ऐसे दकियानूसों की जमात है, जो उन परंपराओं को जायज ठहराने के लिए कुतर्क रचती फिरती है, जिन पर कानूनन पाबंदी लग चुकी है. लड़की को खूबसूरती के पैमानों पर कसने वाले बाजार के साथ शिक्षा तंत्र भी दौड़ रहा है, जो अब तक नारी को देवी बता रहा था. जिसकी सीख मां और ममता के इर्द-गिर्द थी, वह अब 36-24-36 की लचक पर अटक चुका है. मंत्रालय खंडन भी करे या जांच का आदेश देता रहे, पर बात वहां तक पहुंची कैसे? यह भी जानना जरूरी है.
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