मरीजों को नहीं अस्पताल को ही सर्जरी की जरूरत

Last Updated 18 Apr 2017 03:12:48 PM IST

मिर्जापुर के एक गांव के गरीब किसान राजेंद्र को अक्सर खांसी आती थी. बड़ी उम्मीद से वो जिला अस्पताल आया. कई चक्कर लगाने के बाद खून और बलगम की जांच से पता चला कि उसे टीबी यानि क्षय रोग है.


(फाइल फोटो)

उसे जिला अस्पताल से जिला टीबी अस्पताल में रेफर किया गया. जिला टीबी अस्पताल पहुंचा तो बाहर ही लिखा था टीबी का इलाज मुफ्त होता है. यहां तक सब ठीक था. लेकिन पर्चा बनने के बाद असल मुसीबत शुरू हुई. पहले तो उसे बिस्तर नहीं होने का हवाला देकर दो दिन बाद आने को कहा गया. उसे कुछ दवाएं भी दी गईं. पैसे नहीं लगे. वो दो दिन बाद जब जिला टीबी अस्पताल पहुंचा तो वार्ड के कर्मचारियों ने कुछ पैसों की मांग की.

किसान राजेंद्र ने मांग पूरी की तो उसे बिस्तर मिला. लेकिन उसकी हालत देख उसे रोना आ गया. बिस्तर पर गंदी चादर, आसपास फैली बेतहाशा गंदगी, पान की पीक और उधड़ी हुई तकिया. उसे इलाज कराना था इसलिए भर्ती हो गया. इलाज शुरू होने के साथ मुसीबतों का अंतहीन सिलसिला शुरू हुआ. वार्ड मे पंखा था लेकिन चल नहीं रहा था. दीवारें थीं पर उनका प्लास्टर झड़ा हुआ था. संडास था लेकिन तीन दीवारों वाला. सीट का हाल ये कि उसमें अस्पताल के कर्मियों ने कचरा डाल बंद कर रखा था.

राजेंद्र और अन्य मरीजों ने गुहार लगाई. डॉक्टर से लेकर नर्स और वार्ड ब्वॉय तक सब से कहा पर जब कुछ नहीं हुआ तो वो 20 रुपए रोज किराए पर एक पंखा ले आया. अस्पतताल से कुछ दूर पर सुलभ में नित्य कर्म के लिए जाने लगा. खाना भी घर से मंगाने लगा. सरकारी अस्पतालों की ये वो तस्वीर है जो उत्तर प्रदेश के कमोबेश हर सरकारी अस्पताल में नजर आती है.

सूबे में योगी सरकार के आने के बाद उम्मीद थी कि सब कुछ न सही पर कुछ तो जरूर बदलेगा. लेकिन लखनऊ के दावे जिलों की जमीन पर दम तोड़ रहे हैं. राज्य में तकरीबन 50 हजार डॉक्टरों की कमी है. नए मेडिकल कॉलेजों में पूरी क्या आधी फैकल्टी भी नहीं है. जूनियर डॉक्टर गिरोह बनाकर काम करते हैं. जिला अस्पतालों में दवाएं नहीं है. जांच की मशीनें खराब पड़ी हैं. पूरा अस्पताल तो छोड़िए संवेदनशील जगह ऑपरेशन थियेटरों तक में ढंग से सफाई नहीं होती. सब कुछ वैसा ही है जैसे पूर्व की सरकारों में था.

मिर्जापुर के मामले को मी़डिया ने उठाया तो कलेक्टर शर्मिंदा नहीं हुईं बल्कि उन्होंने जिला टीबी अस्पताल की दुर्व्यवस्था को रूटीन मानते हुए जांच के आदेश कर अपना काम खत्म मान लिया.

यूपी के सभी जिलों के सरकारी अस्पतालों का एक जैसा हाल है. जिला अस्पताल रोज समय से खुलते और बंद होते हैं. लेकिन साफ सफाई के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है. डॉक्टर तय समय पर भले न आते हों लेकिन समय पूरा होने से पहले निकल जरूर जाते हैं. सरकार की कई चेतावनी के बाद भी सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस जारी है.

केजीएमयू के एक कार्यक्रम में जब मुख्यमंत्री ने डॉक्टरों को पैसे के पीछे न भागने और मरीजों की दुआ लेने की सलाह दी तो निजी प्रैक्टिस करने वाले राज्य के सरकारी डॉक्टरों को ये सलाह इतनी नागवार गुजरी कि फतेहपुर में 6 सरकारी डॉक्टरों ने निजी प्रैक्टिस करने के लिए इस्तीफे तक दे दिए.

पिछले एक हफ्ते में हुई कुछ घटनाएं बताती हैं कि सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे डॉक्टर, कर्मचारी अभी भी अपना पुराना ढर्रा छोड़ने को तैयार नहीं हैं. फिरोजाबाद में सरकारी पीडियाट्रीशियन अस्पताल की जगह अपने घर पर मरीजों को देखते कैमरे पर कैद हुए. एक अन्य मामले में एक गरीब महिला को महिला अस्पताल की जगह ठेले पर बच्चे को जनना पड़ा क्योंकि सरकारी अस्पताल की एएनएम ने पोलियो अभियान में व्यस्तता का हवाला देकर गर्भवती को अस्पताल से भगा दिया.

सरकारी मेडिकल कॉलेजों में मरीजों का हाल ये है कि डॉक्टर मरीज की शक्ल देखते ही उसे पर्चे पर ढेर सारे टेस्ट लिखकर देने के बाद अगले हफ्ते आने को कह देते हैं. मरीज के जिरह करने पर उनसे मारपीट आम बात है. इसे मुख्यमंत्री केजीएमयू के एक समारोह में मान भी चुके हैं. जेनरिक दवाओं की जगह नामी कंपनियों की दवाओं का लिखा जाना अब भी जारी है.

सूबे के सरकारी अस्पतालों में एनआरएचएम, टीकाकरण, राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण समेत राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कई योजनाएं चल रही हैं. करोड़ों का फंड हर साल मिलता है. लेकिन सरकारी अस्पतालों का हाल बद से बदतर होता जा रहा है. क्योंकि नैतिकता बीते जमाने की बात हो चुकी. नए जमाने में केवल नौकरी का भय काम करता है लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह घोटाले हुए. मंत्री से लेकर संतरी तक ने जिस तरह पंजीरी खाई उससे नौकरी का भय भी खत्म हो चुका है. इसीलिए यूपी के सरकारी अस्पतालों को अब सर्जरी की जरूरत है.  

ओम शंकर


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