विमुद्रीकरण : मोदी का गरीब कार्ड
अब तो यह स्पष्ट होने लगा है कि नोटबंदी के फैसले की एक अहम वजह भाजपा के जनाधार को व्यापक बनाने की योजना रही है.
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसका अहसास पिछले लोक सभा चुनावों के दौरान ही हुआ हो सकता है. लेकिन शायद गहरा अहसास बिहार और दिल्ली के चुनावों में हार से हुआ हो. संभव है, उत्तर प्रदेश के सबसे अहम विधान सभा चुनावों के पहले उन्होंने काला धन और भ्रष्टाचार पर कथित तौर पर सबसे तगड़ा वार करके ऐसी हार से उबरने और विपक्ष को घेरने की रणनीति बनाई. हाल में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने साफ कहा भी कि पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी इन चुनावों में उनके अमोघ अस्त्र होंगे.
यह रणनीति इसलिए भी कारगर लग सकती है क्योंकि पिछले लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष की टिप्पणियों के बरक्स अपनी सामान्य पृष्ठभूमि पर जोर देने की रणनीति अपना कर मोदी देश के चुनावी इतिहास में भाजपा को ऐतिहासिक मुकाम पर पहुंच चुके हैं. लेकिन सरकार बनाने के बाद अपने कथित विकास के एजेंडे पर ही चलते रहे. लोक सभा चुनावों में उनकी जीत में एक बड़ा मुद्दा था कि वे निर्णायक नेता हैं. यूपीए सरकार की नीतिगत पंगुता से मुक्ति दिला सकते हैं. इन्हीं नीतियों के मुताबिक उन्होंने सरकार में आते ही हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा बढ़ाई. जमीन अधिग्रहण आसान बनाने को कई-कई बार अध्यादेश लाए. हालांकि भारी विरोध की वजह से उससे मुंह मोड़ना पड़ा.
मोदी सरकार गरीबों को राहत कर मनरेगा और खाद्य सुरक्षा योजना जैसे कार्यक्रमों की लगातार खिल्ली उड़ाती रही है. सरकार के अर्थशास्त्री कल्याणकारी योजनाओं में हर तरह की सब्सिडी को अनुत्पादक बताते रहे हैं. लेकिन नोटबंदी के लिए पचास दिन की अवधि खत्म होने के बाद 31 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नोटबंदी के लाभ-हानि पर कम, कल्याणकारी और लोक-लुभावन योजनाओं के मद में राशि बढ़ाने की घोषणा करते ज्यादा देखे गए. इनमें जननी सुरक्षा जैसी भी योजना थी, जिसे पिछले ढाई साल से लगभग भुला दिया गया था. गंभीर सवाल है कि क्या मोदी का दिल वाकई गरीबों के लिए धड़कने लगा है? ऐसा होता तो उनकी नीतियों और कार्यक्रमों में झलकता. महज भाषणों ही नहीं, नीति दस्तावेज में जाहिर होता.
मोदी हमेशा कारोबारी सहूलियत और उस विकास के पैरोकार रहे हैं, जो शहरीकरण, भारी औद्योगीकरण और नव-उदारवादी नीतियों के तहत बड़े कॉरपोरेट घरानों को प्रश्रय देता है.
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने अपनी छवि इन्हीं नीतियों के लिए बनाई. उन्होंने 2008 में बंगाल में सिंगुर विवाद के बाद गुजरात में टाटा को जमीन मुहैया कराके संकेत दिया था कि वे औद्योगिक विकास और शहरीकरण को तरजीह देने में सबसे आगे हैं. बाद में ‘सूट-बूट की सरकार’ के आरोपों से घिरे मोदी को दिल्ली और बिहार में हार झेलनी पड़ी. वे विदेश से काला धन लाने और हर किसी के खाते में ‘15 लाख रु. जमा करने’ के वादे को पूरा करने में नाकाम रहने के लिए विपक्ष के हमले की जद में रहे. ढाई साल में उनके बहुप्रचारित कार्यक्रमों और योजनाओं का कोई खास असर होता नहीं दिखा. धूम-धड़ाकों के साथ उनकी ऐलानिया योजनाओं से जमीनी राहत मिलती नहीं दिखी. मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान, स्मार्ट सीटी, डिजिटल इंडिया, सांसद ग्राम योजना, स्टार्ट अप, स्टैंड अप जैसी योजनाओं और कार्यक्रमों के लक्ष्य सिर्फ चर्चाओं में दिखाई पड़ते हैं. ऐसे में चुनावी जनादेशों की वेला में उन्हें छवि परिवर्तन के लिए किसी अहम उपाय की दरकार महसूस हुई होगी. इस साल सात राज्यों के चुनावों के बाद अगले साल ज्यादातर भाजपा शासित राज्यों की बारी है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में लगातार तीन बार की सरकारों को एंटी-इंकंबेंसी कारक झेलना पड़ सकता है. उसके बाद लोक सभा का चुनाव आ जाएगा. यानी मोदी के लिए अब और मोहलत नहीं है. सो, गरीब हितैषी की छवि से ज्यादा सुकून और कहां मिल सकता था.
इसीलिए नोटबंदी के बाद से ही मोदी लगातार गरीबों के हित की बातें कर रहे हैं. एक रैली में उन्होंने यहां तक कहा कि उन्हें चुनाव में जीत-हार से ज्यादा गरीबों के हित की चिंता है. उनके गरीबों के हितैषी होने के बयान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे की याद दिला देते हैं. एक रैली में तो उन्होंने कहा, ‘मैं कहता हूं भ्रष्टाचार मिटओ, वे कहते हैं मोदी हटाओ.’ इसे सुनकर बरबस इंदिरा के उस नारे की याद आ जाती है, ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ.’ जाहिर है, मोदी को अहसास है कि सिर्फ संघ परिवार के हिंदू ध्रुवीकरण की कोशिशों और भाजपा के परंपरागत वोट बैंक के सहारे आगे नहीं जाया जा सकता. लेकिन नोटबंदी से क्या हासिल हुआ? यह 30 दिसम्बर, 2016 की तय समय-सीमा के बीतने के बाद भी न रिजर्व बैंक बताने को तैयार है, न सरकार.
सिर्फ एक शिगूफे जैसी खबर आ रही है कि पुराने नोटों में जमा किए गए करीब 4 लाख करोड़ रुपये पर आयकर विभाग को संदेह है. यह क्या वाकई काला धन है, यह सरकार क्यों नहीं बता पा रही. सरकार की तथ्यों को छुपाने या अर्धसत्य जाहिर करने की कोशिशें इतनी भर नहीं हैं. ये खबरें भी जाहिर होने लगी हैं कि सरकार इस मामले में संसद तक में सही तथ्यों का उजागर नहीं कर पाई. शीतकालीन सत्र में राज्य सभा को मंत्री पीयूष गोयल ने बताया था कि नोटबंदी की सिफारिश रिजर्व बैंक की थी, और सरकार ने उसे मान लिया. लेकिन संसदीय लोक लेखा समिति को लिखे रिजर्व बैंक के नोट से पता चलता है कि 7 नवम्बर को सरकार ने नोटबंदी पर रिजर्व बैंक से फौरन प्रस्ताव मांगा. रिजर्व बैंक ने वह 8 नवम्बर को मुहैया करा दिया. सरकार या रिजर्व बैंक इस पर क्या सफाई देते हैं, या नोटबंदी के दौरान बेहिसाब नियमों में फेरबदल को कैसे जायज ठहराते हैं, यह तो आगे पता चलेगा. फिलहाल, प्रधानमंत्री गरीबों की दुहाई देकर नोटबंदी को जायज ठहराने में जुटे हैं. कितने सफल होते हैं, इसका पहला इम्तिहान विधानसभा चुनावों में होने जा रहा है.
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