नोटबंदी : अधर में असंगठित मजदूर

Last Updated 05 Jan 2017 06:45:22 AM IST

असंगठित क्षेत्र का एक सर्वाधिक बड़ा कारोबार है ट्रांसपोर्ट उद्योग. इसमें ऑल इंडिया परमिट के अंतर्गत लगभग 48 लाख ट्रक पंजीकृत हैं.


नोटबंदी : अधर में असंगठित मजदूर

इनसे करीब 7 करोड़ लोगों की आजीविका जुड़ी है-प्रत्यक्ष रूप से 2 करोड़ और अप्रत्यक्ष रूप से 15 करोड़ लोगों की. इन ट्रकों के संचालन के लिए डीजल की खरीद, टोल टैक्स का भुगतान और रास्ते के अन्य सभी खचरे का भुगतान आदि चालकों को नकद रूप से करना होता है. मालभाड़े का नकद रूप में भुगतान प्राप्त करने का भी चलन है.

नोटबंदी के पश्चात नकदी के उपयोग और इसके प्रचलन में उपजे व्यवधान के कारण ट्रकों के पहियों का परिचालन अवरुद्ध हो गया. कहा गया है कि अनुमानत: 20 लाख ट्रक सड़कों पर स्थिर खड़े हो गए. एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि ट्रांसपोर्टरों के पास नकदी नहीं होने की वजह से करीब 40  हजार ट्रक सड़कों पर खड़े हैं.

इनके रुक जाने से कार्य बाधित हुआ. ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के मुताबिक, नोटबंदी से ट्रांसपोर्टर के व्यवसाय को अवरोधित होने के साथ-साथ सरकार को भी राजस्व की भारी क्षति हो रही है. डीजल और पेट्रोल की बिक्री पर 6 रुपये प्रति लीटर सेस लगता है, जिसके द्वारा सरकार को इस वित्तीय वर्ष में लगभग 70 हजार करोड़ रुपये की आय होने का अनुमान था, जिसके प्रभावित होने का अंदेशा है. इसी प्रकार, राजमागरे पर टोल टैक्स से लगभग 17 हजार करोड़ रुपये की आय, जो सरकार को प्राप्त होने का अनुमान था, वह भी  बाधित हुई.  सर्वाधिक सोचनीय स्थिति है छोटे कामगारों की जो नोटबंदी से अधिक ग्रसित हुए हैं, जैसे राजमागरे पर ट्रक दिन-रात चलते रहते हैं, जगह-जगह पेट्रोल पंप लगे हैं, खाने-पीने और विश्राम के लिए ढाबे बने हैं, जिनमें लाखों लाख मजदूर, कामगार, मिस्त्री, व्यवसायी, ढाबा मालिक काम में लगे होते हैं.

ट्रक बंद तो ट्रक व्यवसाय बंद. मजदूर-कामगारों का काम बंद. ये सभी मजदूर, व्यवसायी नकद लेन-देन प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करते, रोज दिहाड़ी लेते और खर्च करते हैं. दैनिक मजदूरी पाकर ही मजदूर अपना, अपने परिवार का पेट पालता है. ट्रकों में काम करने वाले चालक, खलासी, मिस्त्रियों को भी नकद दिहाड़ी, मजदूरी का सहारा होता है. ट्रक मालिक, बैंक तथा बीमा कंपनियां भी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रक्रिया द्वारा लाभान्वित होती हैं. ग्रामीण क्षेत्र में असंगठित श्रमिकों की स्थिति समान रूप से दयनीय है. गांव सदा से रोजगार सुविधा से वंचित रहे हैं. वहां रोजगार नगण्य हैं. कृषि से पूरे परिवार का भरण-पोषण, शिक्षा खर्च पूरा करना संभव नहीं होता. रोजगार में राहत पहुंचाने हेतु प्रारंभ किया गया ‘मनरेगा’ भी अब अधिक प्रभावी नहीं रह गया है.

गांव के मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग तथा पढ़े-लिखे युवा भी, भारी संख्या में पलायन कर शहरों में आते रहे हैं. यहां छोटे-मोटे दैनिक मजदूरी के कामों में काम करके अपना तथा परिवार का पेट पालते हैं. इन दैनिक श्रमिकों का कोई संगठन नहीं, काम मालिकों के आश्रित होते हैं. शहरों में निर्मित होते भवनों, सड़क निर्माण, रिक्शा चालन, आवासीय भवनों की साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, दूध-सब्जी का विक्रय, रेस्तरां, ढाबों में श्रम कार्य, मोची का काम, सड़कों पर मोटरसाइकिल और साइकिल मरम्मत जैसे कामों को अंजाम देने वाले आखिर, कौन हैं? गांव से आए हुए ये ‘सस्ते मजदूर’ ही तो हैं. बड़े शहरों में ये बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं. ये शहर की जीवन-रेखा हैं. यदि ये यहां न हों तो शहर का दैनिक जीवन ही थम जाए.

दिल्ली शहर में इनकी संख्या अत्यधिक है. रोजगार निदेशालय एवं दिल्ली सरकार के आकलन के मुताबिक, 2009 में दिल्ली में संगठित क्षेत्र में कामगारों की संख्या 8.43 लाख थी, जो पिछले दशक में समान रही. किंतु असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वालों की संख्या 42.53 लाख है, जो कुल कामगारों का 85.53 प्रतिशत है. फलस्वरूप बड़े शहरों में इन असंगठित श्रमिकों, मजदूरों की कितनी अहम भूमिका है. नोटबंदी से दैनिक मजदूरी पर, आश्रित कामगारों पर सर्वाधिक मार पड़ी है, इन दिहाड़ी मजदूरों का काम रुक गया है, ये बेरोजगार हो गए हैं. फलत: कितने ही कामगार शहर छोड़कर गांव लौट रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 10 से 15 हजार मजदूर बेरोजगार होकर रोजाना दिल्ली से पलायन कर रहे हैं. श्रम-शक्ति का इस तरह से पलायन सोचनीय है. सुखद तो कदापि नहीं है.         
(लेखक प्रसिद्ध शिक्षाविद् हैं)

डॉ. श्रीनाथ सहाय
लेखक


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