दलित अंग्रेजों से क्यों प्यार करते हैं

Last Updated 27 Nov 2011 01:13:46 AM IST

मुझे हमेशा हैरत होती रही है कि दलित बुद्धिजीवियों में अंग्रेजी शासन से इतना प्यार क्यों दिखाई देता है.


एक दलित विचारक का कहना है, अंग्रेज भारत में बहुत देर से आए और बहुत जल्दी चले गए. आम भारतीय को यह वाक्य कठोर नहीं, असह्य लगेगा. क्या यह दलित सोच भारत की गुलामी का निर्लज्ज स्वीकार नहीं है? क्या इसके पीछे उन अंग्रेजों की प्रशंसा नहीं छिपी हुई है जिन्होंने न केवल भारत की स्वतंत्रता का अपहरण किया था, बल्कि इसे आर्थिक रूप से तबाह भी कर दिया था? फिर दलित खुलेआम अंग्रेजी शासन की तारीफ क्यों करते हैं? वे मैकाले की जयंती क्यों मनाते हैं?

ध्यान देने की बात है कि दलित चेतना को अपूर्व धार देनेवाले और दलित समाज के बौद्धिक गुरु  बाबासाहब अंबेडकर भी अंग्रेजों के साथ थे. भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी कोई भूमिका नहीं थी. उन्हें सिर्फ  दलित हितों की चिंता थी. अंग्रेजी शासन से वे उम्मीद करते थे कि वह दलित हितों का संरक्षण करेगा तथा सवर्णो की तानाशाही से दलितों को बचाएगा. उन्हें अंग्रेजों से शिकायत थी तो यही कि वे दलित हितों को आगे बढ़ाने में इतनी सुस्त गति से क्यों आगे बढ़ रहे हैं.

कांग्रेस की दलित चिंता अंबेडकर को ढोंग लगती थी. उन्होंने एक मोटी किताब भी लिखी थी कि कांग्रेस और महात्मा गांधी ने दलितों के लिए क्या किया? वे गांधी के कटु आलोचक थे. जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का फैसला कर लिया, तब उनसे अंबेडकर का सवाल यही था कि हमें आप किसके भरोसे छोड़ कर जा रहे हो? जा रहे हो, तो हमारे लिए कोई स्थायी बंदोबस्त करके जाओ. लेकिन क्या अंग्रेज भारत में सामाजिक समानता स्थापित करने आए थे? जब तक उन्हें दलितों से फायदा था, तब तक वे इनकी पीठ ठोंकते रहे. जब उन्होंने तय कर लिया कि अब भारत में रहना संभव नहीं है, तो उन्होंने दलितों से मुंह फेर लिया.

आज के दलित विचारक अंग्रेजी शासन के इस अवसरवादी पहलू पर विचार करना नहीं चाहते.  उनकी समझ यह है कि अंग्रेज कुछ बरस और भारत में टिके रहते, तो दलितों की स्थिति थोड़ी और सुधर जाती. यह समझ सही है या गलत, इस पर बहस किए बगैर हमें यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि अंग्रेजी शासन में ही दलितों को कुछ अधिकार मिले, शिक्षा का प्रकाश उन तक पहुंचा और उन्हें सरकार के सामने प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला. दक्षिण के कु छ राज्यों में सरकारी नौकरियों में उन्हें आरक्षण भी मिला था. यह सब अभूतपूर्व था.

अंग्रेजों के पहले के किसी भी शासन ने दलितों की समस्याओं के प्रति थोड़ी भी संवेदनशीलता नहीं दिखाई थी. उन सब को अपनी राजनीतिक सत्ता और आर्थिक लाभ से मतलब था. वे हिंदू समाज के सामाजिक ढांचे को छेड़ना नहीं चाहते थे. तभी भारत में उनका शासन इतने अधिक दिनों तक कायम रह पाया. इसके विपरीत, अंग्रेजों ने कई सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप किया. वे दलितों को हिंदू समाज की मुख्य धारा में तो नहीं ला पाए, पर दलितों के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर ‘स्पेस’ जरूर पैदा किया. इसके लिए दलित समाज उनका आभारी क्यों न हो?

अंग्रेजी शासन की स्थिति इस मामले में विशिष्ट थी कि वह हिंदू समाज के आंतरिक विभाजन से तटस्थ था. अंग्रेज एक ऐसे मुल्क से आए थे जहां न तो अस्पृश्यता थी और न जाति प्रथा. सामंती असमानताएं थीं, पर किसी भी समूह को इतना दबा कर नहीं रखा गया था जितना हमारे देश में दलितों को. इसलिए वे हिंदू समाज की विसंगतियों को देख कर दंग रह गए. सती प्रथा जैसा कलंक उन्होंने पहली बार देखा था. यह भी एक ऐतिहासिक सचाई है कि जब कोई प्रगतिशील व्यवस्था मालिक के रूप में किसी और इलाके में पहु़ंचती है, तो वह वहां के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप करती है.

स्थानीय आबादी में उनकी कुछ नकल भी शुरू हो जाती है. भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान दोनों ही प्रक्रियाएं दिखाई पड़ती हैं. आखिर कु छ तो बात है कि गांधी, नेहरू, पटेल आदि बैरिस्टर थे और जिन्ना तथा अंबेडकर भी बैरिस्टर थे. लेकिन पहले वर्ग के नेता भारतीय पोशाक में नजर आते हैं, जबकि दूसरे वर्ग के नेता पतलून, कोट और टाई में. वस्तुत:  अंबेडकर को यूरोपीय पोशाक में देख कर दलितों को गर्व होता है कि हमारा नेता किसी से कम नहीं था. उनके इस मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की जानी चाहिए.

अंग्रेजों की यह स्थिति दलितों और पिछड़ी जातियों के पक्ष में थी. इसका मतलब यह नहीं कि सवर्ण वर्ग अंग्रेजी शासन के विरु द्ध था. अगर ऐसा होता, तो अंग्रेज भारत में अपने पैर जमा ही नहीं पाते. चतुर अंग्रेज शासकों ने एक ओर सवर्णो को साधा तो दूसरी ओर निचली जातियों को. उनकी इस रणनीति के परिणामस्वरूप भी निचली जातियों को संरक्षण मिला. सेना में भी इन पर ज्यादा भरोसा किया जाता था. जो भी हो, सवर्ण और दलित समाज के बीच अंग्रेजों ने मध्यस्थ  की भूमिका निभाई. इससे दलित सत्ता का उदय प्रारंभ हुआ. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मध्यस्थ की यह भूमिका निभानेवाला कोई नहीं रह गया. राजनीतिक समर्थन लेने के लिए दलितों को साथ जरूर रखा गया, उनकी कुछ सहायता भी की गई, लेकिन उनकी सत्ता को उभरने नहीं दिया गया.

इस आधार पर हम कह सकते हैं कि पराधीन भारत में दलित दृष्टि से अंग्रेजों ने जो प्रगतिशील भूमिका निभाई, वह आजादी के बाद लुप्त-सी हो गई. सवर्णो और दलितों के बीच संघर्ष की स्थिति तो पहले भी थी, लेकिन अंग्रेज इसमें हस्तक्षेप करते थे. आजादी के बाद हस्तक्षेप करनेवाला हाथ नहीं रह गया. इसलिए दोनों समूहों के बीच कटुता बढ़ने लगी.

सत्ता दलित हितों की रक्षा के लिए कानून बनाती थी और दलितों को सरकारी कोष से कु छ सहायता भी देती थी, लेकिन उसका हृदय सवर्णो के साथ था. दूसरी ओर, सवर्णो के बीच से कोई ऐसा आंदोलन उभर कर नहीं आ सका जो दलितों के पक्ष में खड़ा हो. इससे दलित बाकी समाज से कट गए और उनमें अलगाववाद का उदय हुआ. अब यह अलगाववाद मजबूत हो रहा है. यह सवर्ण समाज का राजनैतिक और नैतिक कर्तव्य है कि वह दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए हरसंभव प्रयत्न करे. सामाजिक सामंजस्य का रास्ता सामाजिक न्याय से हो कर जाता है, यह बात जितनी जल्द समझ और मान ली जाए, देश के सभी समूहों के लिए उतना ही अच्छा है.

राजकिशोर
लेखक


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