सुप्रीम कोर्ट की गुजरात हाईकोर्ट पर संवेदना भरी नाराजगी
सर्वोच्च अदालत ने बलात्कार पीड़िता की याचिका स्थगित करने पर गुजरात उच्च न्यायालय पर नाराजगी व्यक्त की। यह याचिका 26 सप्ताह के गर्भ को चिकित्सकीय रूप से खत्म करने संबंधी थी।
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सबसे बड़ी अदालत ने इसे मामले को लंबित रहने के दौरान बहुमूल्य समय की बर्बादी कहा। विशेष सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में तात्कालिकता की भावना होनी चाहिए, न कि सामान्य मामले जैसा। ऐसे मामलों में सुनवाई स्थगित करने का लापरवाह रवैया नहीं अपनाया जाना चाहिए। 25 वर्षीय महिला ने उच्च न्यायालय का रुख किया था, अदालत ने गर्भावस्था की स्थिति के साथ-साथ स्वास्थ्य स्थिति का पता लगाने के लिए मेडिकल बोर्ड के गठन का निर्देश दिया।
अजीब बात इसमें यह थी कि मामले को बारह दिन बाद सूचीबद्ध किया गया था। कानूनन अपने यहां चौबीस सप्ताह से अधिक के गर्भ को गिराना गैरकानूनी है। देश में होने वाले कुल गर्भपातों में 67 फीसद असुरक्षित बताए जाते हैं। अविवाहित लड़कियों के गर्भपात पर सबसे बड़ी अदालत पहले भी नियम बनाने की बात कर चुकी है।
चिकित्सकीय कारणों से तय वक्त से ज्यादा के गर्भ को खत्म करने पर अदालतें बेहद संवेदनशीलता बरतती हैं। इस मामले में सबसे बड़ी अदालत की नाराजगी तर्कसम्मत ही नहीं बल्कि संवेदनापूर्ण भी है। गर्भ के जितने ज्यादा हफ्ते होते जाते हैं, वह परिपक्व होता जाता है। उसे गिराने में गर्भणी को मृत्युतुल्य खतरों की संभावनाओं के चलते स्त्री व प्रसूति विशेषज्ञ स्वयं राजी नहीं होते। दूसरी और अहम बात यह भी है कि गर्भ गिराने के कारणों की अनदेखी करना भी उचित नहीं कहा जा सकता, जबकि यह मामला बलात्कार का हो।
ऐसे मामले में तो युवती के साथ और भी बुरा बर्ताव साबित होता है। ऐसे वक्त में, जब सरकार कानूनों को बदलने का जिम्मा निभा रही है। इस तरह के कानूनी प्रावधान भी करने चाहिए। जहां बलात्कार पीड़िताओं को स्वेच्छा से बच्चा रखने या गर्भपात कराने का पूरा अधिकार प्राप्त हो।
लंबी अदालती प्रक्रियाएं, थाना-कचहरी और अस्पतालों के चक्करों में उसके साथ मानसिक बलात्कार ना हो। तात्कालिकता के महत्त्व व लापरवाही के जिस रवैये पर पीठ ने सख्त रुख अपनाया है, उसे विभिन्न उच्च अदालतों समेत निचली अदालतों को भी संज्ञान में लेना चाहिए। यह स्त्री के लिए जीवन-मरण सरीखी पीड़ा होती है।
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