जातीय गणना पर फिलहाल तो रोक
बिहार सरकार को बृहस्पतिवार को हाई कोर्ट से जोर का झटका लगा। जातीय गणना पर अदालत ने यह कहते हुए रोक लगा दी कि राज्य के पास जाति आधारित सर्वेक्षण करने की कोई शक्ति नहीं है, और ऐसा करना संघ की विधायी शक्ति पर अतिक्रमण होगा।
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हालांकि अदालत ने सव्रेक्षण अभियान के तहत अब तक एकत्र किए गए आंकड़ों को सुरक्षित रखने का निर्देश भी दिया। इस मामले में अगली सुनवाई 3 जुलाई को होगी, लेकिन इस बीच राज्य में सियासत गरमा गई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अदालत के फैसले पर कहा कि जातीय गणना का फैसला सभी दलों की सहमति से लिया गया। राज्य की नौ पार्टियों ने इसमें अपनी सहमति दी थी। यहां तक कि दोनों सदनों से प्रस्ताव पास कराया गया था।
अब पार्टियां विरोध कर रही हैं। एक तरह से नीतीश ने विपक्षी दलों खासकर भाजपा को निशाने पर लिया और राज्य की जनता से छल करने का आरोप भी जड़ दिया। बहरहाल, जातियों की जनगणना अंग्रेजों के समय से चली आ रही है। हालांकि इस पर 1931 में रोक लगा दी गई थी। अब तो सिर्फ आबादी की गणना होती है।
देश में हर 10 वर्ष में आबादी की जनगणना की जाती है। कोरोना की वजह से 2021 में होने वाली गणना नहीं कराई जा सकी। गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार इस बारे में कुछ भी नहीं कह रही। जबकि जनगणना से न केवल लोगों की आर्थिक स्थिति का पता चलता है वरन पिछड़ी हों या ऊंची जातियां, उनकी असली संख्या का भी पता चलता है, जिससे उसी आधार पर योजना बनाने में सरकार को मदद मिलेगी।
अलबत्ता, यह बात तो सोलह आने सच है कि आबादी का सही-सही आंकड़ा सरकारी योजनाओं को बनाने और उन्हें बेहतर तरीके से कार्यान्वित करने में मददगार होता है। वैसे भी केंद्र सरकार अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यकों की गिनती कराती ही है। फिर बाकी आबादी की गिनती में उसे क्या दिक्कत है?
ऐसे में निश्चित तौर पर आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की मांग आने वाले समय में और ज्यादा तेज होगी। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी पार्टियों का मुख्य मुद्दा जातीय जनगणना भी है। देखना है, 3 जुलाई को अगली सुनवाई में मसला सुलझता है, या कि और भी उलझता है।
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