फिर विवादित बयान
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने कहा है कि भारत हमारी मातृभूमि है। जितना नरेन्द्र मोदी और मोहन भागवत का है, उतना ही महमूद का भी है। न हम उनसे एक इंच कम हैं, न वे हमसे एक इंच ज्यादा।
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दिल्ली के रामलीला मैदान में जमीयत के तीन दिनी 34वें आम अधिवेशन के दूसरे दिन शनिवार को मदनी ने कहा कि कुछ लोग कहते हैं कि पाकिस्तान ले लिया, फिर यहां क्यों रहते हैं? कुछ लोग मुस्लिम बादशाहों से नाम जोड़ते हैं। महमूद ने कहा कि जिन्हें पाकिस्तान जाना था, वे 1947 में चले गए। हमारे पूर्वजों की तरह हमारी भी खाक यहीं दफन होगी। स्वाभाविक था कि महमूद मदनी के कथन पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आएंगी, और ऐसा हुआ भी।
विश्व हिंदू परिषद ने कहा है कि मौलाना मदनी बात बराबरी की करते हैं, पर जहर अलगाववाद का बोते हैं। इस्लाम बाहर से नहीं आने की बात कहने वाले किसी मुसलमान को वंदे मातरम् और भारत माता की जय बोलने को नहीं कहते। विहिप ने पूछा है कि हिंसा, अलगाववाद और आतंकवाद के साथ ही परस्पर वैमनस्य फैलाने के लिए कौन जिम्मेदार है। दरअसल, जब-तब किसी-न-किसी बयान पर आरोप-प्रत्यारोप का शुरू होना आम बात है।
यह स्थिति कहीं-न-कहीं दर्शाती है कि अन्य पक्ष को मत को जाने-समझे बिना न केवल अधीरता बरती जा रही है, बल्कि लगता है कि जुबान बचकानेपन तक पहुंच गई है। परिपक्वता का तकाजा है कि हमारे मत-अभिमत के बरक्स दूसरों का भी अपना मत-अभिमत होता है। उनके विचार और सोच को भी स्पेस देना होगा। महज इसलिए ही बोलने नहीं लग पड़ना चाहिए कि देश उदारचेता है, लोकतांत्रिक है, जिसमें विरोध या असहमति का स्वर भी सुना जाता है, लेकिन कुछ भी कहने से पहले ध्यान रखा जाना चाहिए कि समाज में विग्रह पैदा करने की कोशिश नहीं की जाए। एजेंडा के तहत न बोला जाए। महमूद मदनी ने कहा है कि सनातन धर्म यानी बहुसंख्यकों से उनका कोई विरोध नहीं है।
इससे लगता है कि वे परस्पर मिल-बैठकर बातचीत की गुंजाइश निकाल रहे हैं। बेशक, हाल के वर्षो में अनेक मसलों पर असहमतियां उभरी हैं। ध्यान देना होगा कि मसले बातचीत से सुलझा लिए जाएं तो बेतुके मुद्दे नहीं बनने पाते। कोई भी मसला ऐसा नहीं होता जिसका बातचीत से सौहार्दपूर्ण हल न निकाला जा सकता हो। अतिवादी होने से मसले सुलझते नहीं बल्कि उलझते हैं। जिम्मेदार लोग खासकर धर्मगुरुओं का दायित्व है कि वे तर्कसंगत बोलें। एजेंडा के साथ तो कतई नहीं।
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