सच सामने आना चाहिए
पेगासस स्पाईवेयर का इस्तेमाल कर अवैध रूप से नागरिकों की जासूसी किए जाने की शिकायतों की स्वतंत्र रूप से जांच कराने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई मानों में ऐतिहासिक है।
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फैसले के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि नागरिकों के सामने शासन को असीम और मनमाने अधिकार हासिल नहीं हैं। नागरिक को शासन से संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं व अधिकारों के अतिक्रमण की शिकायत है, तो वह राहत के लिए न्यायपालिका का दरवाजा खटखटा सकता है। वास्तव में यह एक प्रकार से हमारे संविधान की मूल व्यवस्था का ही पुन:रेखांकन है।
इसके तहत विधायिका को कानून बनाने और कार्यपालिका को कानूनों का पालन कराने तथा कानून के अनुसार व्यवस्था चलाने का अधिकार है, तो शीर्ष न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करने का अधिकार तथा जिम्मा दिया गया है कि शासन का कोई भी बाजू अपने निर्धारित क्षेत्र का अतिक्रमण न करे और पूरी व्यवस्था संविधान के दायरे में काम करे। इस आम सिद्धांत के ऊपर से सैन्य ग्रेड के इस्रइली जासूसी सॉफ्टवेयर के जरिए देश के नागरिकों की जासूसी होने के प्रश्न तब उठे थे, जब सुप्रीम कोर्ट निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित कर चुका था, जिसके अतिक्रमण की शिकायतों को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
इसके ऊपर से जब एक अंतरराष्ट्रीय सहकारी खोजी प्रयास के हिस्से के तौर पर दुनिया के अनेक देशों में इस स्पाईवेयर के दुरुपयोग का भंडाफोड़ हुआ और कई देशों ने इस सिलसिले में जांच से लेकर कार्रवाई तक की तत्परता दिखाई, भारत सरकार ने मूंदेहुं आंख कहूं कछु नाहीं की ही मुद्रा अपनाए रखी। यहां तक कि इसकी वजह से पूरा मानसून सत्र ही बिना चर्चा के चला गया। सुप्रीम कोर्ट के सामने भी सरकार ने संसद में दिए गए बयान जैसे ही गोल-मोल खंडन से ही काम चलाने की कोशिश की।
लिहाजा, जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने भी इसका जवाब देने से इंकार कर दिया कि उसके किसी बाजू द्वारा ऐसे स्पाईवेयर का नागरिकों की जासूसी के लिए इस्तेमाल किया गया है या नहीं, तो सुप्रीम कोर्ट को स्वतंत्र जांच का निर्णय लेना ही पड़ा। सरकार द्वारा प्रस्तावित विशेषज्ञ जांच इस मामले में न्याय के तकाजे पूरे नहीं कर सकती थी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा की अमूर्त दुहाई का अपने कदमों को न्यायिक जांच के दायरे से बाहर रखने के लिए ओट की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकती।
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