असमानता के मायने
संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक अधिकारी की यह चिंता बहुत ही वाजिब है कि फिलहाल कोरोना वैक्सीन समग्र मानवीयता की सबसे बड़ी जरूरत है।
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पर इस पर फार्मा कंपनियों और विकसित देशों का ही नियंत्रण है। विकसित देश और मुनाफाखोर कंपनियों के पास ही वैक्सीन की उपलब्धता है फिलहाल। यह ठीक है कि कुछ कंपनियों ने शोध वगैरह पर खर्च करके वैक्सीन विकसित की है। पर वैक्सीन को कुछ देशों और कंपनियों को सीमित कर दिया जाए, यह तो मानवीयता के साथ अन्याय ही होगी। गौरतलब है कि कोरोना के टीके सारे देशों को और सारे देशों के सारे नागरिकों को एक साथ नहीं मिलने जा रहे हैं। जिस पर रकम है, वह पहले ही इन टीकों को हासिल कर सकता है। हाल में मुंबई में कुछ टूरिस्ट आपरेटरों ने इस आशय के इश्तिहार दिए कि अमेरिका जाकर कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिए कुछ लाख रुपये खर्चने पड़ेंगे।
यानी जिसके पास रकम है, वह अमेरिका जाकर टीके लगवा सकता है और जिसके पास रकम नहीं है, उसे भारत में भी टीके लगवाने में मुसीबत आने वाली है। अभी तक यह साफ नहीं हुआ है कि कोरोना वैक्सीन किसे मुफ्त मिलेगी और किसे कीमत चुकानी पड़ेगी। कीमत चुकाकर वैक्सीन लगवानी पड़ेगी, तो किस परिवार पर कितना बोझ आएगा, यह अभी साफ नहीं है। कोरोना वैक्सीन कीमत को लेकर एकदम साफ घोषणाएं अभी नहीं हुई हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मिंत कोरोना टीके और स्वदेशी कंपनियों द्वारा निर्मिंत कोरोना टीकों की कीमतों में कितना फर्क रहेगा, यह भी साफ नहीं है। अगर पांच सौ रुपये का एक टीका पड़ता है और पांच लोगों के परिवार के लिए यह लगाना जरूरी है, तो करीब 2500 रुपये का खर्च आएगा।
यह खर्च विपन्न तबके के लिए कम नहीं है। यूं कोरोना वैक्सीन हाल में चुनावी वादों में शामिल थी, पर चुनावी वादे पूरे हमेशा नहीं हो पाते। कोरोना वैक्सीन की निजी निर्माता कंपनियां तो इसकी अधिकतम कीमत वसूलना चाहेंगी। स्वाभाविक है। पर सरकार का जिम्मा यह होता है कि वह इसकी कीमत को आसमान पर ना पहुंचने दे। कुल मिलाकर देश और दुनिया तमाम तरह की असमानताओं से त्रस्त है। कोरोना से पैदा हुई असमानताओं के चलते गरीब आदमी का जीना दूभर ना हो जाए, ऐसी उम्मीद लोकतांत्रिक सरकार से की ही जा सकती है।
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