सराहनीय फैसला
मजहब के नाम पर सरकारी जमीनों पर कब्जा करने वालों के लिए दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला सराहनीय है।
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दरअसल, धर्म-आस्था के नाम पर कुछ लोग रातों-रात बेशकीमती सार्वजनिक जमीन पर कब्जा जमा लेते हैं। आस्था के नाम पर ऐसी गैर-कानूनी हरकतों को जनता का समर्थन भी हासिल हो जाता है। तकलीफ की बात तब हो जाती है, जब अदालत के आदेश के बावजूद राजनीतिक दल इसकी आड़ में तनाव पैदा करने की कोशिश करते हैं।
अतीत में ऐसे कई मामले देखे गए हैं, जब धार्मिक स्थलों पर से कब्जा हटाने को लेकर खूनखराबा भी हुआ और कई लोगों की जानें भी गई। कुछ साल पहले मथुरा की घटना कौन भूल सकता है, जब सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए कुछ शरारती तत्वों ने धर्म और आस्था के नाम पर वहां भारी संख्या में हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा कर रखा था। उसे खाली कराने गई पुलिस टीम को भारी नुकसान पहुंचा था। यहां तक कि एक पुलिस अधिकारी की जान तक चली गई थी।
हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट के इस आदेश के पहले सर्वोच्च अदालत ने सितम्बर, 2009 में व्यवस्था दी थी। इसके बाद अक्टूबर, 2009 और 2010 में गृह मंत्रालय ने भी शासनादेश जारी किया था। इस मुद्दे पर सबसे बड़ी समस्या राजनीतिक सरपरस्ती की रहती है। वोट बैंक के लालच में सियासी पार्टियां सरकारी जमीन पर कब्जा करने वालों का साथ देती हैं। साथ ही भू माफिया कीमती भूमि को हड़पने के चक्कर में ऐसी साजिश रचते हैं। इस नाते सरकार को एंटी भू माफिया की अलग से टीम बनानी चाहिए। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने ऐसा विभाग बना रखा है, मगर आधारभूत सुविधाओं और फोर्स की कमी की वजह से कब्जे हट नहीं पाते।
इसके लिए सरकारों को ठोस नियोजन के साथ आगे बढ़ना होगा। चूंकि ग्रामीण इलाकों में कब्जे ज्यादा होते हैं, इसलिए वहां निरंतर निगरानी और जागरूकता के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। साथ ही संबंधित महकमों और अफसरों की जवाबदेही भी हर हाल में तय की जानी चाहिए। अक्सर ऐसे स्थल विवाद का कारण भी बनते हैं, लिहाजा सरकार को समय रहते ऐसे मामलों का निपटारा करना चाहिए। दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला बाकी राज्यों के लिए निश्चित तौर पर नजीर बनेगा। आस्था के नाम लोगों को बेवकूफ बनाने और अहम जरूरतों के लिए छोड़ी गई जमीन पर कब्जा करने का खेल खत्म होना ही चाहिए।
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