ओली का अप्रत्याशित कदम

Last Updated 22 Dec 2020 03:20:13 AM IST

नेपाल में पिछले आठ महीनों से सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में जारी आंतरिक सत्ता संघर्ष के बीच संसद का निम्न सदन प्रतिनिधि सभा भंग कर दिया गया।


ओली का अप्रत्याशित कदम

काठमांडू का यह घटनाक्रम इस सच्चाई को उजागर करता है कि सत्ता की राजनीति और नेताओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के आगे विचारधारा दोयम दरजे का महत्त्व रखती है। 2017 में हुए संसदीय चुनावों के पूर्व नेपाल के वामपंथी दलों के बीच जब एकता हुई थी और विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आई थी। उस समय लगता था कि नेपाल की राजनीति में कम्युनिस्टों का एकाधिकार हो गया है।

प्रतिनिधि सभा की 275 सीटों में से 170 सीटें नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को मिली थीं। लेकिन इस घटनाक्रम के बाद पार्टी में फूट की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड, दोनों एक दूसरे के खेमे के नेताओं को पार्टी से निकालने की कोशिश करेंगे। पिछले दिनों पार्टी की स्थायी समिति की बैठक में चार वरिष्ठ नेताओं-प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, झालानाथ खनाल और वामदेव गौतम-ने पार्टी प्रमुख और प्रधानमंत्री पद से ओली के त्यागपत्र की मांग की थी।

ओली ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया था तथा अपनी गद्दी बचाने के लिए नेपाली राष्ट्रवाद का कार्ड भी खेला था। प्रधानमंत्री ओली ने उत्तराखंड में भारत के भूभाग कालापानी, लिपूलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल के मानचित्र में शामिल करने की पहल की थी। परिणाम हुआ कि इस भूभाग को नेपाल के मानचित्र में शामिल कर लिया गया। इस तिकड़म से उन्हें फौरी तौर पर राहत तो मिली लेकिन वह सरकार और पार्टी के अंदर अपनी असफलताओं को छुपाने में सफल नहीं हो सके। मानचित्र को वैधानिक स्वरूप मिलने के तुरंत बाद ओली के विरुद्ध बगावत ने जोर पकड़ लिया।

ओली के विरोधी खेमे का नेतृत्व करने वाले प्रचंड का दावा है कि उन्होंने जिस अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था उसे नब्बे सांसदों का समर्थन प्राप्त था। ऐसा माना जा रहा है कि प्रतिनिधि सभा में अल्पमत होने के भय के कारण ओली ने अपना इस्तीफा देकर निचले सदन को भंग की सिफारिश की थी। ओली के फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इसे असंवैधानिक बताया जा रहा है। इस फैसले के विरुद्ध देश के सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं पेश की गई हैं। हालांकि अगले वर्ष अप्रैल और मई के महीने में नये चुनाव की घोषणा कर दी गई है। अब देखना है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख रहता है।



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