भारत की दुविधा
जापान में पिछले सप्ताह क्वाड (चजुर्गुट) के सदस्य देशों-अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन के भारत विरोधी रवैये की तीखी आलोचना की थी।
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पोम्पियो के बयान के चार दिन बाद अमेरिकी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार राबर्ट ओ ब्रायन ने चीन की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि भारत से लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर ताकत के बल पर नियंत्रण करने की चीन की कोशिश उसकी विस्तारवादी आक्रामकता का हिस्सा है। अब यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि बातचीत तथा समझौते से चीन अपना आक्रामक रुख नहीं बदलने वाला है।
पोम्पियो और ब्रायन दोनों का विश्वास है कि चीन की चुनौती का सामना करने के लिए भारत को अमेरिकी प्रभाव वाले देशों की सैन्य-राजनीतिक गुट में शामिल हो जाना चाहिए। पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों की तो यह आमराय है कि चीन के आक्रामक रुख के कारण भारत को अंतत: पश्चिमी देशों के साथ आना पड़ेगा। अमेरिका की इंडो-पैसिफिक नीति का केंद्रीय तत्व भी यही है। हालांकि अभी तक भारत इंडो-पैसिफिक नीति के चीन विरोधी रुझान को नकारता रहा है। पिछले सप्ताह जापान की राजधानी टोक्यो में संपन्न हुए क्वाड की बैठक में भी भारत का यही रुख सामने आया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन विरोधी कोई तल्खी नहीं दिखाई। वास्तव में भारत क्वाड को सैनिक स्वरूप देने के पक्ष में न था और न है। 1962 में भारत पर चीनी हमले के बाद प्रधानमंत्री नेहरू के सामने यही दुविधा थी कि युद्ध के बाद वह गुटनिरपेक्षता की अपनी विदेश नीति का परित्याग करें या पश्चिमी देशों वाले सैन्य-राजनीतिक गुट में शामिल हो जाएं।
पूर्वी लद्दाख की घटना के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने भी यही यक्ष प्रश्न है। वास्तव में भारत की दुविधा भी यही है कि वह विश्व राजनीति में स्वयं एक ध्रुव बने, बहुध्रुवीय विश्व प्रणाली की अपनी नीति को जारी रखे या अमेरिका के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक देशों के गुट में शामिल हो जाए। इस अंतराल में चीन के सामने यह मौका है कि वह भारत के प्रति अपने आक्रामक रवैये में बदलाव लाए। एशिया की सदी का भी यही तकाजा है कि इस महाद्वीप में बाहरी शक्ति को अनावश्यक रूप से चौधराहट करने का अवसर न दिया जाए।
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