प्रमोशन में भी कोटा

Last Updated 12 Feb 2020 12:14:22 AM IST

हाल में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ का उत्तराखंड सरकार की समीक्षा याचिका पर फैसला आया कि पदोन्नति में आरक्षण देना सरकारों के लिए अनिवार्य नहीं है क्योंकि आरक्षण बुनियादी हक नहीं, बल्कि वंचितों को सहूलियत मुहैया कराने वाला अधिकार है।


प्रमोशन में भी कोटा

इससे लोक सभा में तीखी बहस छिड़ गई कि क्या भाजपा सरकार अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण को खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है। जाहिर है, आरोप सबसे पहले कांग्रेस की ओर से उठा, जो एनडीए सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन वह यह भूल गई कि 2015 में उत्तराखंड हाइकोर्ट में यह मामला ले जाने वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ही थी।

हाइकोर्ट ने राज्य में अनूसूचित जाति-जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण कोटे को भरने का फैसला सुनाया था तो राज्य सरकार ने आरक्षण कोटे के तहत पर्याप्त उम्मीदवार न मिलने से पदों के खाली रहने की दलील के तहत समीक्षा याचिका डाली थी, मगर हाइकोर्ट ने अपना फैसला बरकरार रखा तो राज्य सरकार उसकी समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंची; तब तक राज्य में भाजपा की सरकार आ गई थी।

लेकिन अब यह मुद्दा केंद्र में भाजपा सरकार के लिए इसलिए सिरदर्द बनने लगा है क्योंकि उसके लोजपा जैसे सहयोगी दलों ने भी अदालती फैसले से अनुसूचित जातियों के हक की रक्षा करने की मांग उठा दी है। 2017 में भी जब सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने दलित उत्पीड़न कानून को ढीला करने का फैसला सुनाया और देश भर से इसके खिलाफ आवाज उठी तो केंद्र को कानून में संशोधन करना पड़ा।

हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस फैसले में संशोधन कर दिया। मामला संवेदनशील है, इसलिए संभावना यही है कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका दायर कर सकती है या फिर संशोधन विधेयक लाने पर विचार कर सकती है। जाहिर है, भाजपा सरकार भी अपने को दलित-आदिवासी विरोधी होने का तमगा नहीं झेल सकती है। दरअसल, आरक्षण का मसला बेहद उलझा हुआ है क्योंकि आजादी के सत्तर साल बाद भी अफसरशाही में दलित या आदिवासियों का ही नहीं, पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी भी महज 2-3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाई है। इसलिए आरक्षण पर किसी तरह की समीक्षा बेहद संवेदनशील मामला है और उससे किसी तरह की छेड़छाड़ से सरकार के खिलाफ नया मोर्चा खुल सकता है।



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