घातक प्रवृत्ति
चुनाव आयोग को दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान प्रतिशत संबंधी आंकड़े जारी करने में थोड़ा-सा विलंब क्या हुआ कि आम आदमी पार्टी (आप) ने आयोग पर आरोप चस्पा कर दिया जैसे आयोग की सीधे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से साठगांठ हो।
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आप के तीनों वरिष्ठ नेता अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह ने संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की निष्ठा और विश्वसनीयता, दोनों को ही यह कहकर पुन: कठघरे में खड़ा कर दिया कि मतदान संपन्न होने के इतने समय बाद भी मत प्रतिशत क्यों नहीं जारी किया गया।
हमें यह याद रखना चाहिए कि संवैधानिक, वैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाएं व्यक्तियोें द्वारा ही संचालित होती हैं, और उनमें थोड़ी-बहुत त्रुटियां और विचलन की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। लेकिन महज इसके आधार पर पूरी संस्था की विसनीयता को नकार देना घातक प्रवृत्ति है।
पिछले कुछ वर्षो के दौरान देखा गया है कि किसी लोकतांत्रिक संस्था का कोई कदम किसी राजनीतिक दल की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं है तो उस संस्था के प्रति निरंतर अविश्वास पैदा करना और इस अविश्वास को लोगों के दिमाग में भर देने की प्रवृत्ति बढ़ी है। जाहिर है कि यह राजनीतिक प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है क्योंकि लोगों के मन में लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्णयों और नीतियों के प्रति गहरी अनास्था पैदा होने लगेगी। लोग इनकी अवज्ञा शुरू कर देंगे।
सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण को मौलिक अधिकार न मानकर इसे राज्यों का विवेकाधिकार बताए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देश की सबसे पुरानी और जिम्मेदार समझी जाने वाली पार्टी कांग्रेस समेत एनडीए के घटक लोजपा, माकपा के रुख भी कुछ इसी तरह के हैं। कांग्रेस ने इस फैसले पर केंद्र और उत्तराखंड में सत्तारूढ़ भाजपा को जिम्मेदार ठहराया है, और इस मुद्दे पर भाजपा को संसद से लेकर सड़क तक घेरने की रणनीति बनाई है।
विपक्षी दल संसद, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के हर फैसले के खिलाफ सड़क पर आ जाएंगे तो समाज में अराजकता फैलने से भला कौन रोक सकता है। राजनीतिक दलों को लोकतंत्र के भविष्य के लिए ऐसी स्थिति लाने से बचना चाहिए। अहम सवाल है कि संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सवाल खड़ा करने वाले राजनीतिक दल ही क्या बेहद ईमानदार हैं, और बाकी बेईमान। ध्यान देने वाली बात है कि लोकतंत्र तभी तक जीवित रह सकता है, जब तक लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति लोगों की आस्था है।
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