आप बाग-बाग
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम किसी दृष्टिकोण से आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है।
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सारे सर्वेक्षणों ने पहले ही अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी (आप) के भारी बहुमत की भविष्यवाणी कर दिया था। दिल्ली की परिस्थितियां ऐसी थीं, जिनमें इससे अलग चुनाव परिणाम लाने के लिए भाजपा को जो कुछ और जितना करना चाहिए था, वह सब नहीं किया गया। अंत में अमित शाह के कूदने से थोड़ी जान आई, लेकिन एक बार मन बना चुके जनता को अपनी ओर खींचना आसान नहीं था। हालांकि भाजपा ने अपना मत प्रतिशत बढ़ाया और इससे साबित होता है कि उसका एक ठोस आधार प्रदेश में है।
लेकिन 2015 के चुनाव में दोनों पार्टयिों के लिए मतों और सीटों का जितना बड़ा अंतर है, उसे पाटना आसान नहीं था। भाजपा के लिए कई मायनों में यह चुनाव धक्का है। इस वर्ष पहले झारखंड विधानसभा चुनाव हारी और सत्ता से बाहर हुई। अब दिल्ली में 22 वर्ष से सत्ता में वापसी का इंतजार कर रहे पार्टी को फिर कोशिश करने का समय पांच वर्ष बाद ही आएगा। राजधानी होने के कारण वह हर हाल में इसे जीतना चाहती थी। वस्तुत: केजरीवाल परंपरागत राजनेता नहीं हैं और न उनकी पार्टी।
प्रदेश चुनाव में इस नेता और पार्टी का सामना करने के लिए बिल्कुल नये तौर-तरीके अपनाने की आवश्यकता थी। यह न भाजपा कर सकी और न कांग्रेस ही। केजरीवाल ने पहले से बिजली बिल में दिए गए रियायत के बावजूद घरेलू उपभोक्ताओं को शून्य बिल भिजवाया, पानी के बकाये बिल में करीब 75 प्रतिशत की कटौती कर दी और महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्राओं का तोहफा दिया। इस बार पुरु ष और महिलाओं का मतदान प्रतिशत लगभग समान रहा है।
यह एक ऐसी चुनौती थी जिस पर क्या स्टैंड लिया जाए यह भाजपा तय ही नहीं कर सकी। बाद में अपने घोषणा पत्र में अवश्य उसने बिजली, पानी की रियायती दर को जारी रखने का वचन दिया, पर काफी देर हो चुकी थी। भाजपा को निश्चय ही आत्ममंथन करना चाहिए कि आखिर अपेक्षाओं के विपरीत उसका प्रदर्शन इतना कमजोर क्यों रहा? सबसे बड़ा आघात कांग्रेस को लगा है। वह दिल्ली से खत्म हो चुकी है। 70 में से उसके 65 उम्मीदवारों के जमानत जब्त हुए हैं। दिल्ली में दो ही पार्टयिां रह गई हैं। अगर कांग्रेस थोड़ा भी मजबूत होती और संघर्ष त्रिकोणीय होता तो परिणाम शायद दूसरा आता। उसमें भाजपा को लाभ हो सकता था।
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