चाबुकों की आदी
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर समेत देश के अन्य हिस्सों में बढ़े प्रदूषण के मामले पर केंद्र और राज्यों की सरकारों को जो फटकार लगाई है, वह आंखें खोलने वाली है।
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हो सकता है कि शीर्ष अदालत की इस भूमिका को भले कोई न्यायिक सक्रियता का नाम दे और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप माने। वस्तुत: यह न्यायिक हस्तक्षेप सरकारों के निकम्मेपन पर हुआ है।
न्यायपालिका के समक्ष किसी भी मसले पर याचिकाएं आती हैं, तो न्यायालय अवश्य अपनी भूमिका का निर्वाह करेगा। इसलिए थोड़ी देर के लिए न्यायालय की इस भूमिका को न्यायिक सक्रियता मान भी लिया जाए तो इसे न्यायालय की सकारात्मक सक्रियता के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकारों के नकारापन के चलते देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को अपनी न्यायिक भूमिका के अलावा सर्वोच्च प्रशासनिक, विधायी और कार्यपालिका की भूमिका का निर्वहन करना पड़ रहा है। यही वजह है कि देश की उच्च अदालतें-विशेषकर सर्वोच्च अदालत-भारी बोझ से दब गई हैं।
प्रदूषण से निबटने के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों की निष्क्रियता पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्र और दीपक गुप्ता की पीठ ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि दिल्ली की स्थिति नरक से भी बदतर हो गई है। आखिर लोगों को गैस चैंबर में रहने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है। लोग तिल-तिल कर मरें, इससे तो अच्छा होगा कि बम विस्फोट कर उन्हें एक बार में ही मार दो। शीर्ष अदालत की सरकारों और सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों की अकर्मण्यता पर इससे ज्यादा गंभीर टिप्पणी क्या हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की इतनी सख्त टिप्पणी के बाद भी यदि प्रशासनिक अधिकारी प्रदूषण की रोकथाम के लिए ठोस कदम नहीं उठाते हैं, तो उन्हें अपने पदों पर बने रहने का क्या औचित्य है? भारत जैसे कल्याणकारी राज्य व्यवस्था वाले देश में आम जनता को साफ पानी और साफ हवा मुहैया कराना सरकारों का काम है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि प्रदूषित हवा और प्रदूषित पेयजल पर भी राजनीति हो रही है। केंद्र और दिल्ली की सरकार एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत की ताजा सख्त टिप्पणी के बाद राजनीतिक दलों के नेता और नौकरशाह लोगों को वायु प्रदूषण और दूषित पेयजल से मुक्ति दिलाने की दिशा में कोई ठोस कार्रवाई करेंगे।
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