महाराष्ट्र का पेच
यह कहना उचित नहीं होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति का सारा दारोमदार सर्वोच्च न्यायालय पर टिक गया है। हां, उसके यहां दोबारा मामला आ सकता है।
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सर्वोच्च न्यायालय में दोनों पक्षों की जिरह और उन पर आई न्यायमूर्तियों की मौखिक टिप्पणियों को देखे तो वह राज्यपाल के कदम की संवैधानिकता पर विचार करने की जगह संविधान के प्रावधानों और उसमें व्यक्त भावनाओं के अनुरूप समाधान निकालना चाहता है। न्यायपीठ ने कांग्रेस, राकांपा एवं शिवसेना के वकीलों से पूछा भी कि अगर हम बहुमत परीक्षण पर विचार करते हैं तो क्या आप याचिका वापस ले लेंगे? वकीलों ने जवाब दिया, हां।
इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि न्यायालय मुख्यमंत्री के रूप में देवेन्द्र फड़णवीस एवं बतौर उप मुख्यमंत्री अजीत पवार को राज्यपाल द्वारा शपथ ग्रहण से जुड़े सारे पहलुओं पर विचार की जगह बहुमत परीक्षण कराने पर विचार कर रहा है। देखते हैं न्यायालय तिथि कब निश्चित करता है? इस पूरे कुरूप प्रकरण में न्यायालय की भूमिका सीमित है। कौन सरकार बनाए और कौन न बनाए यह तय करना न्यायालय का काम नहीं है। यह राज्यपाल का भी कार्य नहीं है। राज्यपाल को अपने विवेक से यह देखना है कि किसके पास बहुमत है और उसे शपथग्रहण कराना है?
बहुमत का फैसला विधानसभा के अंदर ही हो सकता है। बोम्मई फैसले और उसके बाद ऐसी सारी घटनाओं में न्यायालय ने यही फैसला दिया है। इसलिए दारोमदार महाराष्ट्र के विधायकों पर है। राकांपा, कांग्रेस एवं शिवसेना तीनों अपने विधायकों की किलेबंदी कर रही है। इससे यह पता नहीं चल सकता कि किस विधायक के मन में क्या है? राकांपा के संदर्भ में एक जटिलता यह भी है कि अजीत पवार ने विधायक दल के नेता के रूप में समर्थन की चिट्ठी राज्यपाल को सौंपी। तो विधानसभा में बहुमत परीक्षण के दौरान ह्विप कौन जारी करेगा अजीत पवार या जयंत पाटिल जिन्हें अजीत पवार के विद्रोह के बाद नेता चुना गया। इस दृष्टि से विचार करें तो मामला आसानी से हल होता हुआ लगता नहीं।
जो विधायक इनमें से किसी के ह्विप का उल्लंघन करेगा जो कि निश्चित है तो उसकी सदस्यता रद करने का आवेदन विधानसभा अध्यक्ष के पास जाएगा। वहां से वह फिर न्यायालय तक आएगा। हालांकि यह सब दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भाजपा शिवसेना को महाराष्ट्र की जनता ने सरकार बनाने का बहुमत दिया था। शिवसेना मुख्यमंत्री पद के मोह में हठधर्मिंता नहीं अपनाती तो इसकी नौबत आती ही नहीं।
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