पाकिस्तान का संकट
पाकिस्तान में सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध से भविष्य को लेकर कोई निश्चित निष्कर्ष निकालना कठिन है।
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प्रधानमंत्री इमरान खान सरकार द्वारा यह वक्तव्य देने के बावजूद कि प्रदर्शनकारियों की सभी जायज मांगें मान ली गई हैं, सरकार विरोधी प्रदर्शनों का जारी रहना इस बात का सबूत है कि दूसरे दौर की बातचीत भी विफल रही। जैसा हम जानते हैं कि इस्लामाबाद में मौलवी फजलुर्रहमान के नेतृत्व में ‘आजादी मार्च’ के नाम से सरकार विरोधी प्रदर्शन चल रहा है, जिसे पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) समेत विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है। इनकी मुख्य मांग है कि इमरान खान इस्तीफा दें।
आरोप यह है कि 2018 के आम चुनाव में धांधली हुई, अन्यथा इमरान पीएम नहीं बनते। यह आरोप पहले से लग रहा है कि सेना के साथ कट्टरपंथियों का बड़ा तबका तथा न्यायपालिका ने नवाज शरीफ एवं पीएमएल-एन के खिलाफ कार्रवाई कर इमरान को उभारा। इमरान खान ने वार्ता के लिए रक्षा मंत्री परवेज खट्टक के नेतृत्व में टीम गठित की जिसने घोषणा की कि सरकार इस्तीफे को छोड़कर सभी जायज मांगें मानने को तैयार है। इमरान ने पहले मार्च के खिलाफ कड़ा रु ख अपनाया था।
लेकिन इतने बड़े जन सैलाब के खिलाफ बल प्रयोग का निर्णय जोखिम भरा है। वैसे भी इमरान की लोकप्रियता इस समय निचले स्तर पर पहुंच गया है। जम्मू-कश्मीर पर अतिवादी रु ख और बड़बोलापन की भारत द्वारा हवा निकालने के कारण उनकी स्थिति और बदतर हुई है। इमरान कई बड़े नेताओं को फजलुर्रहमान के घर अलग से भेज रहे हैं। इस समय सेना का रु ख क्या है इसका सही अनुमान लगाना भी कठिन है।
हां, सेना पहले की तरह आंखें मूंदकर इमरान खान के साथ नहीं है। हो सकता है घटती लोकप्रियता के कारण वह इमरान से पिंड छुड़ाना चाहती हो। किंतु वह इमरान से इस्तीफा दिलवाकर नए सिरे से चुनाव के पक्ष में शायद ही हो। फजलुर्रहमान भविष्य में सेना के लिए कितने मुफीद होंगे इस पर भी वह विचार करेगी। पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए यह आशंका भी खारिज नहीं की जा सकती कि सेना स्वयं भी सत्ता हाथ में लेने पर विचार करे। भारत को भी पूरे घटनाक्रम पर गहराई से नजर रखनी होगी।
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