साझा समस्या, साझा हल
गनीमत है कि दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र का आसमान कुछ तो खुला है। शायद बूंदाबांदी और हवा के झोकों से धुंध कुछ छंट गई है।
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लेकिन वह धुंध अभी घनी बनी हुई है, जो इस समस्या से निपटने के लिए सरकारों और हमारे समूचे तंत्र में छाई हुई है। इसी धुंध को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को सख्त होना पड़ा। सर्वोच्च अदालत ने सभी संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को तलब किया है, और निर्देश दिया है कि खेतों में पराली जलाने की एक भी घटना नहीं होनी चाहिए।
यह सख्ती वाजिब है क्योंकि सरकारों और हमारे राजनैतिक तंत्र में सिर्फ चुनावी हलचलों के अलावा समस्या पर ठोस समझदारी कहीं नहीं दिख रही है। मसलन, दिल्ली में ही सड़कों पर गाड़ियों के प्रबंधन के लिए ऑड-ईवन फार्मूले की शुरु आत हुई तो पहले ही दिन भाजपा नेता विजय गोयल इस व्यवस्था को तोड़कर चार हजार रुपये का जुर्माना भर आए।
दिल्ली सरकार की इस पहल को विपक्ष महज दिखावा मान रहा है। इससे क्या फर्क पड़ेगा, इस पर सवाल सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने भी उठाया है, और दिल्ली सरकार से पूछा है कि अपने पुराने अनुभव से इसके नतीजे बताए। लेकिन पहले दिन दिल्ली की सड़कों पर जाम नहीं दिखा। ज्यादातर लोग इसका स्वत: पालन करते दिखे। इससे एक बात तो यकीनन पता चलती है कि दिल्ली के लोगों को फिक्र है।
वे हर प्रयोग में सहयोग करना चाहते हैं ताकि यहां की हवा-पानी में सुधार आए। लेकिन यही समझदारी राजनैतिक तंत्र में नहीं दिखती। दरअसल, प्रदूषण का भयावह स्तर पर पहुंच जाना किसी एक वजह से नहीं हुआ है। कई वजहों के एक साथ होने का नतीजा है। इसमें बदलती जनसंख्या और वाहनों के प्रयोग में बेहद असंतुलन, बदलती खेती-किसानी की व्यवस्था, तेजी से उगते कंक्रीट के जंगल और शायद जलवायु परिवर्तन सभी का मिलाजुला योगदान है। इसलिए यह व्यापक नीतिगत पहल की मांग करता है।
सिर्फ किसानों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। इसलिए दिल्ली में अगर गाड़ियों के संचालन के विशेष प्रबंधन से भी फर्क पड़ सकता है। किसी भी समाधान को सिर्फ राजनैतिक नफे-नुकसान पर तौलने की रवायत छोड़नी होगी। तभी शायद कोई तर्कसंगत हल निकल पाएगा। जाहिर है कि दिल्ली में चुनाव आसन्न हैं, तो राजनीति भी होगी। लेकिन प्रदूषण ऐसी समस्या है, जिस पर राजनीति से ऊपर उठकर विचार करना चाहिए। साझा प्रयास ही इसमें कारगर हो सकते हैं।
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