चांद के करीब
अगर किसी बच्चे को 100 तक गिनती नहीं आए और वह 95 पर ही रु क जाए, तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसे कुछ नहीं आता।
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इसी प्रकार चांद की सतह पर उतरने से ठीक पहले चंद्रयान-2 के लैंडर ‘विक्रम’ का इसरो से संपर्क टूट जाना एक झटका जरूर है, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरी तरह विफल हो गया। यह कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं है, जहां किसी को सफल या विफल घोषित किया जा सकता है।
ज्ञान के क्षेत्र में निरंतर सीखने का क्रम चलता रहता है, चाहे वह कक्षा के भीतर हो या बाहर। संपर्क टूटने का अर्थ मिशन खत्म होना नहीं है, बस इतना है कि अभी कुछ और वर्षो तक भारत को चांद को छूने के लिए इंतजार करना पड़ेगा। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का विश्वास है कि चंद्रयान-2 किंचित विफलता के बावजूद अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में नया आयाम खोलेगा। अच्छी बात यह हुई कि लैंडर विक्रम का पता चल गया है और आर्बिटर ने चंद्रमा की कुछ तस्वीरें (थर्मल इमेज) ली हैं। ऐसा नहीं है कि शोध केवल लैंडर के जरिये होता, बल्कि आर्बिटर में भी ऐसे उपकरण लगे हैं। खबर है कि आर्बिटर एक साल नहीं, बल्कि सात साल से ज्यादा समय तक चंद्रमा की परिक्रमा करेगा, जबकि लैंडर वहां दो सप्ताह तक ही काम करता और वह भी सीमित दायरे में।
फिर भी अगर लैंडर चंद्रमा की सतह पर पहुंच जाता, तो चांद के कुछ रहस्यों से पर्दा हटने में मदद मिल सकती थी। साफ्ट लैंडिंग में हुई गलती का पता लगाकर अगली बार दुरु स्त किया जा सकता है। इस बाबत खुद इसरो चीफ डॉ. के. सीवन ने जानकारी दी कि चौदह दिनों के अंदर सॉफ्ट लैंडिंग की कोशिश फिर की जाएगी। अगर चांद पर पहुंचने को ही सफलता का पैमाना मानें, तो ऐसा नहीं है कि केवल भारत का चंद्र मिशन विफल हुआ है, अंतरिक्ष की दुनिया में अपनी धाक जमाने वाले रूस और अमेरिका के साथ भी ऐसा कई बार घटित हो चुका है।
इसी साल इस्रइल का चंद्र मिशन भी विफल हुआ है। इसलिए भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को हताश होने की आवश्यकता नहीं है। देश को उनकी क्षमता पर पूर्ण विश्वास है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में इसे अभिव्यक्त कर दिया है। भारत ही नहीं, विदेशी मीडिया और दूसरे देशों के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने इसरो के प्रयास की सराहना की है। इस हल्के में नहीं लिया जा सकता कि यह प्रयास कम खर्च में और स्वदेशी तकनीक पर आधारित था।
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