इस्तीफों का संदेश
इधर आला पदों से इस्तीफों का सिलसिला शुरू हो गया है। मद्रास हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश विजया के. ताहिलरमानी के इस्तीफे के बाद नीति आयोग के एक अधिकारी कशिश मित्तल ने भी सेवा को अलविदा कह दिया।
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इसके पहले दो अपेक्षाकृत युवा आइएएस अधिकारियों कन्नन गोपीनाथ और एस. शशिकांत सेंथिल कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ठप करने और अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाने के विरोध में आइएसएस की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ने का फैसला कर चुके हैं। इन इस्तीफों में सरकारी फैसलों से असहमति तो है ही, शायद यह संदेश भी है कि सरकार या व्यवस्था अपने फैसलों में किसी तरह का संशोधन या बदलाव करने को तैयार नहीं है। यह अनुदार रवैया ही चिंताजनक है, जो बड़े पैमाने पर कश्मीर के मामले और कुछ अन्य सरकारी फैसलों में दिखता है। बहरहाल, गोपीनाथ और सेंथिल ने तो लोकतंत्र पर पाबंदियों के खिलाफ ही आवाज अठाई है।
न्यायाधीश ताहिलरमानी और कशिश मित्तल के मामले तबादले के हैं। दोनों का ही अरुणाचल प्रदेश तबादला कर दिया गया था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। ये मामले भी देखने में व्यक्तिगत लग सकते हैं, लेकिन बारीकी में उतरने पर मौजूदा सत्ता की इनके प्रति नाखुशियां तलाशी जा सकती हैं। बॉम्बे हाइकोर्ट में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के नाते ताहिलरमानी बिलकिस बानो गैंग रेप के मामले में 11 दोषियों को फांसी और उम्र कैद की सजा पर मुहर लगा चुकी हैं। यहां यह जरूर कहा जा सकता कि न्यायाधीश ताहिलरमानी के इस्तीफे से सरकार का नहीं, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का लेनादेना है। बहरहाल, ये इस्तीफे कतई शुभ नहीं हैं।
मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में भी कई बड़े इस्तीफे हुए, जिनकी भरपाई शायद ही हो पाई। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रrाण्यम तो कार्यकाल खत्म होने के बाद हटे और अर्थव्यवस्था पर सरकार के मुखर विरोधी हो गए। आरबीआइ के गवर्नर रहे रघुराम राजन और उर्जित पटेल, डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की विदाई भी सहज नहीं रही है। इसलिए यह समझना चाहिए कि कुछ तो ऐसा है जिसे बदलने की दरकार है। इस्तीफे लोकतंत्र में सरकारों को अपने रवैए में बदलाव का संदेश दे जाते हैं, जो सरकारें इन संदेशों को नहीं सुनतीं, वे शायद लोकतंत्र का भला नहीं कर रही होती हैं।
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