परिवार की ‘माया’

Last Updated 25 Jun 2019 06:30:06 AM IST

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव पर सख्त टिप्पणी से दोनों पार्टियों के बीच रिश्तों को समझा जा सकता है।


परिवार की ‘माया’

एक महीने पहले लोक सभा चुनाव के नतीजों के बाद मायावती ने प्रेस वार्ता में समाजवादी पार्टी से अलग होने का संकेत दिया था और उस दौरान उतनी तल्खी मायावती ने जाहिर नहीं की थी, मगर अब अखिलेश और पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह यादव पर मायावती के तंज कसने से दोनों पार्टियों की राहें जुदा हो गई हैं। इससे इतर मायावती ने पार्टी को लेकर एक अहम फैसला लिया। उन्होंने अपने भाई और उनके बेटे (भतीजे) को पार्टी उपाध्यक्ष और पार्टी का राष्ट्रीय समन्वयक (कोआर्डिनेटर) बनाकर परिवारवाद के रास्ते अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की शुरुआत की है। खास बात यह कि परिवारवाद पर कभी हमलावर रहने वाली मायावती खुद इसकी बड़ी समर्थक दिख रहीं हैं। भाई और भतीजे को पार्टी के अहम पदों पर बिठाने का अर्थ सीधे तौर पर यही निकाला जा सकता है कि मायावती अब दूसरे नेताओं पर भरोसा करने से कतरा रही हैं। अतीत में उनके भरोसेमंद कई नेताओं; मसलन स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी आदि  ने जिस तरह पार्टी मुखिया पर आरोप लगाकर पार्टी छोड़ी, उससे मायावती की छवि दागदार हुई। अब अपने खास रिश्तेदारों को पार्टी की कमान सौंपने से यह तो स्पष्ट हो गया है कि आने वाले समय में बसपा में परिवार का ही बोलबाला रहेगा।

मायावती ने बेहद चालाकी से अखिलेश पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप चस्पा कर और खुद की पार्टी में यादव जाति के नेताओं को जगह देकर यह संदेश भी दे दिया कि उनकी रणनीति स्वजातीय वोटरों के साथ ही मुस्लिम और यादव वोटरों को भी साधने की है। आगे क्या होगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, किंतु जिस तरह से मायावती ने सपा का हाथ महज छह महीने के भीतर झटक दिया, उससे राज्य में नये तरह की सियासी सरगर्मी देखने को मिलेगी। और इसकी झलक अगले कुछ माह होने वाले विधानसभाई उप चुनाव में देखने को मिलेगी। वैसे तो विधानसभा चुनाव 2022 में प्रस्तावित है, लेकिन मायावती अभी से इसकी तैयारी में जुट गई हैं। देखना है, उनकी रणनीति निशाने पर लगती है या जनता के मन में अभी भी बसपा को लेकर उत्साह नहीं है।



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