जहरीली मौत
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर शराब ने कई लोगों की जिंदगी लील ली और कई परिवारों को बेसहारा कर दिया। राज्य के पिछड़ों जिले में शुमार बाराबंकी में जहर बुझी शराब से अब तक 16 की मौत की खबर है, जबकि 40 बीमार हैं।
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कइयों का इलाज जारी है। वैसे यह सिर्फ उत्तर प्रदेश की स्थिति नहीं है। देश के हर राज्य और शहर में अवैध या जहरीली शराब के कारोबारी इंसानी जान से खेल रहे हैं। मौत के बाद सरकारी सिस्टम की नींद टूटती है और दिखावे के लिए सख्त कार्रवाई का ऐलान और मुआवजे वितरण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। शासन का यह चिरस्थायी ट्रेंड है। इसमें किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया है। अगर प्रशासन का रुख कड़ा और ईमानदार होता तो ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होतीं। दुख की बात है कि इसी साल फरवरी माह में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब के कारण 112 लोगों की जान गई थी।
राज्य के पश्चिमी इलाके (मेरठ) से लेकर पूर्वाचल के कुशीनगर तक में कई लोग शराब के नाम पर जहर का सेवन कर मौत के मुंह में समा गए। तब भी काफी हो-हल्ला मचा। कार्रवाई के नाम पर कुछ छोटी मछलियों की गिरफ्तारी भी हुई, मगर नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’। अगर उस वक्त इन जल्लादों को सलाखों के पीछे डाल दिया जाता तो बाराबंकी में 16 लोगों की जान बच जाती। समस्या है कि हमारे देश में शराब के उत्पादन-वितरण के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है। सब कुछ राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया गया है।
और इसी छूट का बेजा इस्तेमाल राज्य सरकारें अपने राजनीतिक नफा-नुकसान के मद्देनजर करती हैं। मनमाने फैसलों के चलते न केवल सरकार की आय पर चोट पहुंचती है, वरन अवैध शराब के कारोबारियों की पौ-बारह हो जाती है। सो, आबकारी नीति को राज्य सरकार का मसला बनाने के बजाय एक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। शराब कौन सी बिके, कब बिके और कितने में बिके इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति से काफी हद तक ऐसी घटनाओं में कमी आएगी।
दूसरा, आबकारी और मद्य निषेध विभाग की विभिन्न इकाइयों को मजबूती प्रदान की जाए। लंबा-चौड़ा अमला सिर्फ दिखाने के काम आता है। इनकी चूलें कसी जाएं। स्थानीय खुफिया महकमे को जिम्मेदार बनाया जाए। जहरीली शराब से निजात पाने के लिए कुछ कड़वे फैसले लेने ही होंगे।
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