कांग्रेस में ऊहापोह
लोक सभा चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद कांग्रेस को नये सिरे से खड़ा होने के लिए और अपने आपको पुनर्जीवित करने के लिए ऐतिहासिक अवसर मिला है, लेकिन पार्टी में अंदरूनी स्तर पर जिस तरह का सियासी घमासान मचा हुआ है, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस अवसर का लाभ उठा पाएगी।
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इस समय कांग्रेस में दोषारोपण करने और क्षत्रपों द्वारा इस्तीफा देने की होड़ मची हुई है। पराजय के बाद की यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, इसलिए इसे अलग करके कांग्रेस को विचार करना चाहिए कि वह राजनीति में आखिर क्यों है? सचमुच में उसके पास कोई लोकतांत्रिक विचार और सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम है, तो वह क्या है, और उसकी वैचारिकी भाजपा से किस रूप में अलग है। उसे यह भी बताना होगा कि उसकी वैचारिक भिन्नता किस तरह से देश के लिए हितकारी है। कांग्रेस की स्थापना से लेकर आजादी के करीब तीन दशकों बाद तक इसकी वैचारिकी बरगद के पेड़ की तरह थी, जिसकी छाया में सब समाहित थे। अगर आज सचमुच कांग्रेस के पास कोई विचार है तो पार्टी के नेतृत्व में झलकता न कि किसी व्यक्ति में।
ठीक इसी तरह जैसे भाजपा के नेता और प्रधानमंत्री मोदी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। आने वाले वर्षो में मोदी की जगह कोई दूसरा नेता आएगा तब भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उसकी बुनियाद में होगा। दूसरी ओर, कांग्रेस का वैचारिक आधार सिकुड़ कर केवल मोदी विरोध पर केंद्रित हो गया है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा बिखर गया है। देश के सबसे बड़े सूबा उत्तर प्रदेश, जो प्रधानमंत्री दिया करता है, में दो तिहाई और बिहार के दो सौ प्रखंडों में कांग्रेस की इकाई नहीं है। आंध्र प्रदेश, प. बंगाल समेत अनेक राज्यों में पार्टी का झंडा-पोस्टर उठाने वाला कार्यकर्ता ढूंढ़ने से नहीं मिलता। वास्तव में कांग्रेस का वर्तमान संकट परिवार केंद्रित होने की वजह से ही है। परिवार और व्यक्ति की सीमा है। अगर उसके पीछे कोई विचार नहीं है, तो उसकी सफलता संदिग्ध रहती है। इसलिए कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए उसे गांधी परिवार की छाया से मुक्त होना पड़ेगा। इस परिवार को ही कांग्रेस अपनी जीवनदायिनी शक्ति मानती रहेगी तो परिवार की शक्ति चुकती भी है, जैसा इस समय दिखाई दे रहा है। यदि कांग्रेस गांधी परिवार के बिना अपनी कोई वैचारिकता स्पष्ट कर पाएगी तो बची रहेगी अन्यथा गांधी परिवार को अपनी केंद्रीय जीवन शक्ति मानकर चलती रहेगी तो नष्ट हो जाएगी।
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