पार करती मर्यादा
यह तो इंतहा होती जा रही है। चुनाव प्रचार में आरोप-प्रत्यारोप तो लगते हैं लेकिन मामला मां-बाप तक जाए, यह किसी भी सभ्य समाज को शायद ही स्वीकार होगा।
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इससे न तो हमारे लोकतंत्र का मान बढ़ता है, न पद की गरिमा अक्षुण्ण रहती है, न हमारी सभ्यता के बारे में यह शुभ है।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दुनिया क्या कहेगी? देश में जारी आम चुनाव के आखिरी चरणों में छोटों को तो छोड़ दें, बड़े नेताओं के भाषणों-बयानों का ही संकलन करके दुनिया के किसी नये व्यक्ति के सामने पेश किया जाए तो शायद वह उलझन में पड़ जाए कि वाकई, भारतीय सभ्यता-संस्कृति हजारों साल पुरानी है।
उसके लिए शायद यह भी विश्वास करना मुश्किल हो कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। तो, क्या यह माना जाए कि नेताओं के बिगड़े बोल लोकतंत्र के गिरते स्तर का भी संकेत है। उन बयानों की यहां चर्चा करना बेमानी है क्योंकि ये एक डरावना एहसास पैदा करते हैं। ऐसे बयान और बोल सार्वजनिक मंचों पर हमारे यहां होली जैसे त्योहार के लिए ही सुरक्षित रखे जाते थे। व्यंग्य या हल्की छींटाकशी के लिए लोग साल भर होली का इंतजार करते हैं।
तो, नेताओं को यह समझना चाहिए कि यह होली नहीं, लोकतंत्र का पावन पर्व चुनाव है जब नेताओं को अपने किए-धरे और आगे के वादों पर जनादेश सुनने के लिए पैरवी करनी है। इसमें आदर्श तो यही कहलाएगा कि सत्तासीन से लेकर विपक्ष तक पिछले पांच साल के कामकाज की चर्चा करे, सत्तारूढ़ पांच साल का हिसाब दे और विपक्ष उस पर अपनी राय जाहिर करे। लेकिन सत्तारूढ़ दल पिछले पांच साल में अपने कामकाज पर चर्चा से भागने के लिए मर्दाना राष्ट्रवाद को मुद्दा बना रहा है।
विपक्ष जरूर पांच साल में किसानों, बेरोजगारों, छोटे-उद्योग धंधों की बर्बादी की बातें उठा रहा है। मगर फिर मामला व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों पर खिसक जा रहा है। दोनों ही पक्षों को याद रखना चाहिए कि चुनाव व्यक्तियों के लिए नहीं, देश में अगले पांच साल तक चलने वाली नीतियों-कार्यक्रमों के लिए होते हैं। लेकिन व्यक्तियों की सत्ता-लोलुपता की ही नतीजा है कि चुनावी बहस मुद्दों से भटकती जा रही है। ऐसे में यही कामना की जा सकती है कि सबको सद्बुद्धि मिले और लोकतंत्र सही पटरी पर आए।
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