दागी उम्मीदवार
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी नेताओं को पार्टयिों द्वारा टिकट न देने से रोकने की याचिका खारिज करना स्वाभाविक है।
दागी उम्मीदवार |
किसी पर अपराध या भ्रष्टाचार का आरोप लगने मात्र को दोष मान लिया जाना न्याय की सोच नहीं हो सकती। न्याय का मूल सिद्धांत है कि कोई दोषी छूट जाए इसे स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन किसी निर्दोष को सजा मिले यह उचित नहीं। इसलिए न्यायपालिका किसी को सजा देने के पहले उसके अपराधों से संबंधित सारे साक्ष्यों का गहन परीक्षण करती है। आरोपित को अपने बचाव का पूरा अवसर मिलता है।
न्यायपालिका अगर राजनीतिक दलों को यह आदेश दे कि आप ऐसे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार न बनाएं जिन पर किसी तरह के अपराध का आरोप हो तो यह उसके अपने ही सिद्धांत के विरु द्ध होगा। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई 2013 में ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाने पर रोक लगा दी थी जो या तो गिरफ्तार है, जिसे दो साल से ज्यादा की सजा मिल चुकी है। यह आदेश ही पर्याप्त है। इसे ज्यादा खींचना न उचित होगा और न व्यावहारिक ही।
सार्वजनिक जीवन में कई कारणों से व्यक्तियों पर मुकदमे दर्ज होते हैं। आंदोलनों के दौरान भी आपराधिक धाराओं में ही मुकदमा दर्ज होता है। कोई न्याय की मांग के लिए आंदोलन करे उसे भी केवल इस आधार पर अपराधी मान लिया जाए कि उस पर मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, यह कहां का न्याय होगा? हालांकि न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए ज्यादा विस्तार से ये बातें नहीं कही है।
किंतु उसका आशय यही माना जाएगा। इस याचिका के खारिज होने के बाद यह प्रश्न फिर से सामने आया है कि आखिर राजनीति में किसे दागी माना जाए? इस पर लंबे समय से बहस होती रही है और होनी भी चाहिए। अपराध करने वालों के चुनाव जीतकर सत्ता का हिस्सा बनने के अनेक दुखद उदाहरण मौजूद हैं। इस स्थिति के अंत के लिए निस्संदेह गंभीर प्रयास की जरूरत है।
पर पिछले वर्षो में यह काफी कम हुआ है। इसमें न्यायिक तथा चुनाव आयोग की सक्रियता की भी भूमिका रही है। किंतु यह इनसे ज्यादा सामाजिक जागरण और राजनीतिक नैतिकता का विषय है। राजनीति में ऐसे लोग भी हैं, जिन पर अपराध के गंभीर मामले भले दर्ज न हों, पर उनके अपराधी होने का ज्ञान समाज को है। अगर समाज ऐसे लोगों को चुनाव में पराजित करने लगे तो राजनीतिक दल इनको उम्मीदवार बनाने से स्वयं बचने लगेंगे।
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