कविता के कुंवर

Last Updated 16 Nov 2017 04:57:36 AM IST

कुछ लोग अपने समय से पहले पैदा हो जाते हैं और समय से पहले पैदा हो जाते हैं, इसलिए समय उनका मूल्यांकन बहुत देर से करता है.


हिन्दी कवि कुंवर नारायण (File photo)

उन्हें अपनी बारी का इंतजार करते बरसों-बरस बीत जाते हैं.

हिन्दी कवि कुंवर नारायण भी उन्हीं चुनिंदा कवियों में हैं जिनके लिखे-पढ़े की ओर आलोचना कर्म से जुड़े कलकत्ता, दिल्ली और भोपाल घरानों का ध्यान बहुत बाद में गया. तब तक उनके बहुतेरे समकालीनों का डंका बजने लगा था.

जरा सोचिए कि 1956 में जिस शख्स की पहली कविता छपी हो और तबसे वह सहेतुक की दुनिया में लगातार सक्रिय रहा हो, जिसने अयोध्या-1992, अजीब वक्त है और वह चित्र भी झूठा नहीं जैसी समय पार की कविताएं हिंदी को दीं, उसे 41वां ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले-क्या यह हैरत पैदा करने वाली बात नहीं है? अवध ने इस देश के अदब और यहां की गंगा-जमुनी तहजीब को एक से एक चेहरे, एक से एक नायाब हस्तियां दी हैं.

कुंवर नारायण भी उन्हीं में हैं. बेगम अख्तर के शहर फैजाबाद के रहने वाले. वहीं उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक में जन्म लिया. यह अकारण नहीं है कि कुंवर नारायण को पढ़ते और सुनते हुए हम लगभग उसी किस्म की बेचैनी, उसी ताप, उसी अंदाजेबयां के आसपास खड़े होते हैं, जिसकी नुमाइंदगी गजल और ठुमरी गायन की दुनिया में बेगम अख्तर करती हैं.

अब वह धारदार आवाज  खामोश हो गई.  चले गये कुंवर नारायण. उनके पास अपनी विराट दुनिया थी, विराट कविता संसार था, चीजों को आरपार देखने और खतरे को समय से बरसों पहले सूंघ लेने की अद्भुत तमीज थी उनमें लेकिन कविता में नारेबाजी से वह उम्र भर बचते रहे. कविता में बाजीगरी पैदा करने से वह हमेशा परहेज करते रहे.

उनकी लगभग हर कविता में यह मिजाज दिख जाएगा. बहुत विनम्र (भाषा के स्तर पर) लेकिन मौका पड़े तो घन गिरा देने का मिजाज. बहुत कम लोगों को पता होगा कि कुंवर नारायण आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादियों के बेहद करीब रहे.

उनकी कविता में आपको एक अलग तरह का समाजवाद दिखेगा, आम समाजवाद की दुनिया से अलग किस्म की एक दुनिया. वहां लोहिया का समाजवाद नहीं है. नेहरू का समाजवाद नहीं है. उनके यहां बिल्कुल घर-आंगन का समाजवाद है. किताबों की दुनिया से दूर और जिंदगी के सबसे करीब.



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