'साइकिल' किसकी, EC कैसे करेगा मामले का निपटारा?

Last Updated 06 Jan 2017 09:48:36 AM IST

समाजवादी पार्टी और साइकिल चुनाव चिन्ह पर एक तरफ मुलायम सिंह यादव और दूसरी तरफ अखिलेश यादव के खेमे के दावे के बीच अब सवाल उठता है कि चुनाव आयोग कैसे और किस तरह से मामले का निपटारा करेगा?


'साइकिल' किसकी (फाइल फोटो)

यूपी विधानसभा चुनाव के नजदीक होने की वजह से मामला और जटिल हो गया है कि आखिर दोनों खेमों के लोग किस पार्टी के नाम और किस चुनाव चिन्ह पर चुनाव मैदान में उतरेंगे. चुनाव आयोग में ऐसे मामले पहले भी आए हैं.

एक नजर डालते हैं कि कैसे होगा पूरे मामले का निपटारा...

राजनीतिक दलों के विभाजन-विलय पर फैसले का चुनाव आयोग को विशेष अधिकार

राजनीतिक दलों के विभाजन और विलय के मसले पर चुनाव आयोग के पास विशेष अधिकार है. इन अधिकारों को दो हिस्सों में बांट सकते हैं- वर्ष 1968 से पहले का अधिकार और वर्ष 1968 के बाद का अधिकार. दरअसल 1968 से पहले ऐसे मामलों का निपटारा आयोग कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स के तहत करता था लेकिन 1968 के बाद प्रतीक आदेश, 1968 के तहत ऐसे मामलों का निपटारा आयोग करता है.

प्रतीक आदेश, 1968 के पहले चुनाव आयोग कार्यकारी आदेश और अधिसूचना जारी कर ऐसे मसलों पर फैसला करता था लेकिन 1968 के बाद प्रतीक आदेश के तहत चुनाव आयोग को विशेष शक्तियां ऐसे मसलों पर मिल गई हैं.

प्रतीक आदेश के पारा 15 के तहत चुनाव आयोग को मान्यताप्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन से जुड़े विवादों के निपटारे का अधिकार है जबकि पारा 16 के तहत आयोग को राजनीतिक दलों के विलय पर निर्णय का अधिकार है.

1968 से पहले और बाद के राजनीतिक दलों के विभाजन के दो बड़े मामले

प्रतीक आदेश 1968 के अस्तित्व में आने से पहले राजनीतिक दल के विभाजन का सबसे बड़ा मामला भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का है. सीपीआई में वैचारिक विभाजन नवंबर, 1964 में आया और दिसंबर, 1964 में पृथक ग्रुप के कुछ नेताओं ने मुख्य चुनाव आयुक्त से अनुरोध किया कि पृथक ग्रुप को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नाम दिया जाए. पृथक ग्रुप ने आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के अपने पक्ष के सांसदों और विधायकों की सूची में चुनाव आयोग को दी.

चुनाव आयोग ने पाया कि सभी सदस्यों को मिले वोट तीन राज्यों में चार फीसदी से अधिक हैं और इसी आधार पर पृथक ग्रुप को नई पार्टी का नाम दिया गया और एक अलग चुनाव चिन्ह. चुनाव आयोग ने अपने फैसले के लिए कोई आदेश पारित नहीं किया बल्कि एक प्रेस नोट के जरिए 13 दिसंबर, 1964 को फैसले की जानकारी लोगों को दे दी.

प्रतीक आदेश 1968 के अस्तित्व में आने के बाद का सबसे बड़ा मामला 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में पहले विभाजन का है. राष्ट्रपति पद पर उम्मीदवार के चयन को लेकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो समूहों में बंट गई. एक ग्रुप प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को समर्थन करनेवाला कांग्रेस ‘जे’ के रूप में था. इस ग्रुप की अध्यक्षता पहले सी सुब्रह्मण्यम और बाद में जगजीवन राम ने किया.

दूसरा ग्रुप कांग्रेस ‘ओ’ का था जिसका नेतृत्व एस निजलिंगप्पा के हाथ में था. निजलिंगप्पा विभाजन से पहले संयुक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे. 21 दिसंबर, 1969 को सी सुब्रह्मण्यम ने चुनाव आयोग के सामने पत्र के माध्यम से बताया कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने एस निजलिंगप्पा को अध्यक्ष पद से हटाकर उन्हें अध्यक्ष की कमान सौंप दी है. आयोग को बाद में जानकारी दी गई कि बाद में सुब्रह्मण्यम की जगह जगजीवन राम को अध्यक्ष बना दिया गया है.

निजलिंगप्पा ने चुनाव आयोग में दावा किया कि दोनों को पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया है. चुनाव आयोग ने दोनों खेमों के विवादित दावे की जांच करने के बाद 11 जनवरी, 1971 को जगजीवन राम की कांग्रेस को असली कांग्रेस बताया और चुनाव चिन्ह आवंटित किया. ये अब तक का सबसे महत्वपर्ण मामला है. अपने विस्तृत फैसले में चुनाव आयोग ने दोनों समूहों के दावे की जांच तीन टेस्ट के आधार पर की.

पहला टेस्ट- चुनाव आयोग ने कांग्रेस के संविधान को आधार बनाया. चुनाव आयोग ने देखा कि दोनों समूहों में से किसी ने पार्टी संविधान के नियमों का पालन नहीं किया. एस निजलिंगप्पा ने पार्टी संविधान को आधार बनाकर ही कांग्रेस पर अपना दावा किया था.

दूसरा टेस्ट- चुनाव आयोग ने दूसरे टेस्ट के तौर पर देखा कि किस समूह ने कांग्रेस संविधान के लक्ष्य और उद्देश्य का पालन नहीं किया. आयोग ने पाया कि दोनों समूहों में से किसी ने पार्टी के लक्ष्य और उद्देश्य को चुनौती नहीं दी थी. यानि इस मामले में दोनों खरे उतरे.

तीसरा टेस्ट- जब दो टेस्ट के आधार पर चुनाव आयोग कोई फैसला नहीं कर पाया तो आयोग ने बहुमत के टेस्ट को आधार बनाया. चुनाव आयोग ने पार्टी संगठन और लोकसभा और विधानसभा में दोनों समूहों के बहुमत का पता लगाया. चुनाव आयोग ने देखा कि जगजीवन राम के समूह को संगठन और लोकसभा-विधानसभा के अधिकतर लोगों का बहुमत हासिल है.

क्यों अब तक का सबसे महत्वपूर्ण मामला है कांग्रेस के अंदर 1969 का विभाजन विवाद

1969 के कांग्रेस के विभाजन और चुनाव आयोग की तरफ से निपटारे का केस अब तक का सबसे महत्वपूर्ण मामला है. 1968 में प्रतीक आदेश के लागू होने के बाद ये सबसे अहम केस था जिसकी फैसला चुनाव आयोग ने एक साल 20 दिनों में दिया और कई महत्वपूर्ण लोगों से चुनाव आयोग ने बातचीत कि और मौखिक सबूत को रिकॉर्ड किया. डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा और मोरारजी देसाई जैसे बड़े लोगों से भी आयोग ने बात किया और कांग्रेस के मामले में फैसला दिया. दोनों ने बाद क्रमश: राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया.

चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ जब निजलिंगप्पा समूह सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो वहां भी चुनाव आयोग के फैसले और फैसले के आधार को सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बहुमत और गिनती का टेस्ट लोकतांत्रिक संगठन में मूल्यवान और उचित है.

संगठन और लोकसभा-विधानसभा में बहुमत का आधार और कांग्रेस का मामला राजनीतिक पार्टियों के विवादों के निपटारे के लिए प्रमाणित, स्तरीय और आदर्श केस माना जाता है. कांग्रेस में 1978 में दूसरे और 1995 में तीसरे विभाजन के दौरान, जनता पार्टी में 1979, 1980, 1989 के विभाजन, लोकदल में 1987 और 1988 के विभाजन, एआईएडीएमके में 1987 और जनता दल में 1990 और 1992 के विभाजन और बाकी दूसरे विवादों में चुनाव आयोग ने कांग्रेस के मामले को ही आदर्श टेस्ट मानकर अपना फैसला सुनाया. समाजवादी पार्टी के विभाजन और दावे के निपटारे के लिए चुनाव आयोग कांग्रेस के आदर्श केस को ही आधार बनाएगा.

विवाद के मामले में चुनाव के नजदीक होने पर चुनाव आयोग की अंतरिम व्यवस्था

चुनाव नजदीक होने की स्थिति में अगर राजनीतिक दलों का विवाद सामने आता है तो चुनाव आयोग अंतरिम व्यवस्था के तहत मूल पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह को जब्त कर लेता है और दोनों खेमों को अलग पार्टी और चुनाव चिन्ह आवंटित करता है ताकि चुनाव लड़ने में कोई परेशानी न हो. 1979 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विभाजन के समय चुनाव आयोग ने चुनाव को देखते हुए ऐसा हीं किया.

एक समूह को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) और दूसरे समूह को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (यू) का नाम दिया. चुनाव नजदीक होने की वजह से 1980 में जनता पार्टी के विभाजन के समय आयोग ने एक समूह को भारतीय जनता पार्टी का नाम दिया और दूसरे को जनता पार्टी का. 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले जनता दल में विभाजन का विवाद जब चुनाव आयोग के सामने पहुंचा तो चुनाव आयोग ने जनता दल और पार्टी के चुनाव चिन्ह पहिया के इस्तेमाल पर रोक लगा दिया और दोनों विरोधी खेमों में से एक को तीर चुनाव चिन्ह के साथ जनता दल यूनाईटेड का नाम दिया और दूसरे को जनता दल सेक्युलर का नाम और ट्रैक्टर चलाते किसान का चुनाव चिन्ह आवंटित किया.

गौर करनेवाली बात ये है कि अंतरिम व्यवस्था की जरूरत तभी पड़ेगी जब चुनाव आयोग को प्रथम दृष्टया लगेगा कि प्रतीक आदेश 1968 के पारा 15 के तहत मान्यताप्राप्त दल में प्रतिद्वदी ग्रुप की मौजूदगी है. ऐसे और भी कई मामले हैं. समाजवादी पार्टी का मामला अगर परिवार के अंदर नहीं सुलझता तो चुनाव आयोग इसी प्रक्रिया का पालन करेगा क्योंकि विवाद के निपटारे के लिए चुनाव से पहले आयोग के के पास काफी कम समय है.

नीरज कुमार
समय संवाददाता


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